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मन का जागरण
१४६ महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया
___ पर्वत अडोल होता है । मेरु पर्वतराज है । वह पर्वतों में श्रेष्ठ है । वह कभी प्रकंपित नहीं होता। कितने ही महाप्रलयंकारी झंझावात आए, मेरु कभी चलित नहीं होता। जब एक पुद्गल पर दृष्टि स्थापित करने की साधना सफल होती है तब मन शान्त हो जाता है। वह किसी भी परिस्थिति में उद्वेलित नहीं होता, प्रकंपित नहीं होता । मधुर शब्द सामने आए, चाहे सुन्दर रूप सामने आए, चाहे सुगन्ध का स्पर्श हो, मृदु स्पर्श का अनुभव हो, स्मृति या कल्पना आए-यह मन का मेरु कभी प्रकंपित नहीं होता, प्रताडित नहीं होता । जब मन की यह स्थिति बन जाती है तब चैतन्य जागता है, पिछला मस्तिष्क खुलता है। तंत्रशास्त्र में यह सम्मत है कि त्राटक से मस्तिष्क के पीछे का भाग जागता है। यह महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है उस चेतना को सक्रिय करने की। अपलक ध्यान
भगवान महावीर कई दिनों तक अनिमेष ध्यान करते, त्राटक करते । ध्यान की इस लम्बी अवधि में उनकी आंखे लाल हो जाती । वे इतनी डरावनी बन जाती कि बच्चे उन्हें देखकर डर जाते, चिल्लाने लग जाते । इतनी विद्युत् निकलती कि आसपास में आने वाला भयभीत हो जाता। यह निनिमेष या अपलक ध्यान मन को विलीन, शान्त, जागृत या समाप्त करने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है, सभी साधनों में अग्रसाधन हैं।
___ जब अपलक ध्यान से पृष्ठ-मस्तिष्कीय चेतना जागती है तब अन्तदर्शन स्पष्ट होता है, आन्तरिक आंखे उद्घाटित होती हैं । भोग भयंकर हैं, अनित्य हैं, वास्तविक सुख तो कुछ और ही है-यह रटी-रटाई बात नहीं रहती, अनुभवगत हो जाती है। वह व्यक्ति रटी-रटाई बात नहीं करता, पुस्तक से पढ़कर नहीं कहता किन्तु अपनी अन्तर्दृष्टि से साक्षात्कार कर कहता है। जो लोग साधना नहीं करते, साधना का अनुभव नहीं करते, केवल पुस्तकीय ज्ञान और बौद्धिकता के आधार पर इसकी चर्चा करते हैं, वे कभी चित्त की डांवाडोल स्थिति के पार नहीं जा सकते । सम्यगदर्शन और जागरिका
जैन दर्शन में सम्यगदर्शन के लिए जागरिका शब्द का प्रयोग हुआ है। साधना के क्षेत्र में जागृति वहीं से शुरू होती है, जहां शरीर और आत्मा का भेद-ज्ञान हो जाता है। जब तक इसका भेद-ज्ञान नहीं होता तब तक जागति नहीं होती। वास्तव में सम्यकदर्शन का अर्थ ही है-भेद-ज्ञान, जहां चेतना और अचेतना की भिन्नता का स्पष्ट बोध होता है। आचार्य कुन्दकुन्द तथा अनेक व्याख्याकारों ने मुख्यतः यही प्रतिपादित किया है।
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