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चित्त और मन
प्रवहमान रहे । श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, अन्तर्यात्रा - ये सब शुद्ध भावधारा को जागृत रखने के आलम्बन हैं और शुद्ध भावधारा ही जागृत मन का लक्षण हैं ।
प्रश्न वर्तमान क्षण का
एक साधक ने पूछा- - क्या यह श्वासप्रेक्षा' शरीरप्रेक्षा आदि से अन्त तक यही है या कुछ और भी है ?
मैंने कहा -न आदि है न अन्त है, कुछ भी नहीं है ।
-जब कुछ भी नहीं है तो क्यों करवाई की जा रही है ?
उसने पूछामैंने कहा - आदि और अन्त है
आदि बिन्दु है - वर्तमान क्षण में जीना
वर्तमान क्षण में जीना । ध्यान का और अंतिम बिन्दु है, वर्तमान क्षण में जीना । ध्यान का प्रथम और अन्तिम सोपान है वर्तमान क्षण में जीना । वर्तमान क्षण ही महत्त्वपूर्ण क्षण है । जो वर्तमान क्षण में जीता है, वह रागद्वेष मुक्त क्षण में जीता है । जो व्यक्ति वर्तमान क्षण का अनुभव करता है, घटित होने वाली घटनाओं का अनुभव करता है— केवल अनुभव करता है, जानता देखता है, केवल ज्ञाता द्रष्टा होता है, वही ध्यान का स्पर्श कर सकता है, जागरूकतापूर्ण जीवन जी सकता है ।
अन्तर्दृष्टि का जागरण
एक प्रश्न है – अन्तर्दृष्टि कैसे जागे ? जयाचार्य ने एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया है - 'इक पुद्गल दृष्टि थाप ने कीधो है मन मेरु समान के' । मस्तिष्क के पिछले रहस्यमय हिस्से को सक्रिय करने का, अन्तर्दृष्टि को उपलब्ध होने का, सम्यग्दृष्टि को प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण उपाय हैएक पुद्गल पर दृष्टि को टिकाना । यह है अनिमेषप्रेक्षा । हमें खुली आंखों से देखना है । हम किसी भी वस्तु का चुनाव करें और उसे खुली आंखों से देखें । बिलकुल अनिमेषदृष्टि । कोई झपकी न हो, निमेष न हो । निर्निमेष नेत्रों से अपलक एक वस्तु को देखते जाएं। यह अनिमेष ध्यान है । हठयोग में इसे त्राटक कहा जाता है । यह एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया । इससे अनुमस्तिष्क जागता है, शक्तियां जागती हैं । आगमों का वाक्य है— एग पोग्गल निविट्ठदिट्टि | भगवान महावीर एक पुद्गल पर दृष्टि टिका कर ध्यान करते थे । ध्यान की इस पद्धति का उल्लेख मिलता है, परिणाम का उल्लेख नहीं मिलता । एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाने का परिणाम क्या होता है, निष्पत्ति क्या होती है, इसका उल्लेख सूत्रों में नहीं मिलता । जयाचार्य ने इस पद्धति के साथ-साथ इसके परिणाम का उल्लेख करते हुए लिखा है- कीधो हो मन मेरु समान के एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाने से मन मेरु की तरह अडोल और अकंप हो जाता है ।
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