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चित्त और मन
पर केन्द्रित नहीं है। होना तो यह चाहिए कि खाने की अपेक्षा उत्सर्जन पर अधिक ध्यान केन्द्रित हो। ऐसा होगा तो भावशुद्धि भी रहेगी, विचारशुद्धि भी रहेगी, बुरे विचार, बुरी कल्पना और बुरे स्वप्न भी नहीं आएंगे, मूड भी अच्छा बना रहेगा। स्वरोदय साधना
प्रश्न है कि आदमी क्यों बदलता है ? मनोदशा क्यों बदलती है ? कारण क्या है ? हम कारण पर विचार करें। वह कारण बाहर नहीं है, अपने ही भीतर है। समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा मूड पर अंकुश लगाने का प्रयोग है । हम जो श्वास लेते हैं, वह दो भागों में बंटा हुआ है। हम कभी बाएं नथुने से और कभी दाएं नथुने से श्वास लेते हैं। कभी दायाँ स्वर चलता है, कभी बायां स्वर चलता है और कभी दोनों साथ-साथ चलते हैं। स्वरोदय की भाषा में बाएं स्वर को चन्द्रस्वर और दाएं स्वर को सूर्यस्वर कहा जाता है। जब दोनों स्वर साथ चलते हैं तब उसे सुषुम्ना स्वर कहा जाता है। ये तीन स्वर हैं । श्वास और स्वर का संबंध मस्तिष्क से है । जब बायां स्वर चलता है तव दायां पटल सक्रिय होता है। हमारा मस्तिष्क दो गोलार्धा में विभक्त हैदायां और बायां । दोनों का अलग-अलग कार्य है। आज इस विषय में बहुत अनुसंधान हुए हैं। स्वरोदय का सिद्धान्त
स्वरोदय में यह विवेचित हुआ है कि कौन से स्वर में कौनसा कार्य करना चाहिए । कार्य दो भागों में विभक्त है-चल कार्य और स्थिर कार्य । सौम्य कार्य और ऋर कार्य। जब चन्द्रस्वर चलता है तब सौम्य कार्य करना चाहिए । सौम्य और शांत कार्य उसी में सफल होते हैं । यह बहुत वैज्ञानिक चिन्तन है । जब चन्द्रस्वर चलता है तब मस्तिष्क का दायां पटल सक्रिय होता है। दायां पटल सौम्य और शांत कार्य के लिए उत्तरदायी है। स्वरविद्या का विशेषज्ञ व्यक्ति निरन्तर अपने स्वरों की जानकारी करता रहता है। वह जानता है कि किसी के साथ मैत्री करनी है, किसी को अपनी बात से सहमत करना है, किसी को कोई बात जचानी है तो सारा कार्य चन्द्रस्वर में निष्पन्न होना चाहिए। उस समय मूड शांत रहता है। उसी स्थिति में सामने वाले पर प्रभाव पड़ सकता है। अन्यथा सामने वाला व्यक्ति बात सुनते ही उत्तेजित हो जाएगा, बात बिगड़ जाएगी। स्वयं का मूड और सामने वाले व्यक्ति का मूड-दोनों को स्वर के साथ मिलाया जाता है, बात बन जाती
चंद्र स्वर : सौम्यता का प्रतीक
__ कोई व्यक्ति यदि चन्द्रस्वर में कठोर कर्म, वाद-विवाद आदि करने
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