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चित्त और मन
उत्पन्न होते हैं।
मानसिक रोग क्रोध, शोक भय, हर्ष, विषाद, ईर्ष्या, असूया, दैन्य, मात्सर्य, काम, लोभ आदि से तथा इच्छा और द्वेष के अनेक भेदों से उत्पन्न होते हैं।
स्वाभाविक रोग भूख, प्यास, बुढ़ापा, मृत्यु, निद्रा आदि हैं। रोग का मुख्य हेतु
__ रोग का एक हेतु कर्म भी माना जाता है। कर्म रोग किसी बाह्य हेतु के बिना भी प्रकट हो जाते हैं । कर्मज रोग हमारे लिए परोक्ष हैं । स्वाभाविक रोग जीवन का सहज क्रम है । आगन्तुक रोग की जो व्याख्या की जाती है वह आकस्मिक घटना है। शेष रहते हैं-शारीरिक और मानसिक । बाहर से शरीर में आकर रोग उत्पन्न करने वाले अणुओं या कीटाणुओं से जो रोग उत्पन्न होते हैं वे भी आगन्तुक रोग माने जाते हैं ।
शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक-इन तीनों प्रकार के रोगों में मुख्य रोग मानसिक हैं। तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि रोग के मुख्य हेतु आन्तरिक दोष-क्रोध आदि हैं। स्वास्थ्य : स्वस्थिति
ध्यानावस्था में बाहरी प्रभाव बहुत कम होता है। रोग-प्रतिरोधकशक्ति तीव्र होती है। मन वशवर्ती होता है तो वात, पित्त और कफ की अतिरिक्त विषमता नहीं होती। मन पवित्र होता है तो क्रोध आदि जनित रोग उत्पन्न नहीं होते। उनकी अस्थिरता, उच्छंखलता और अपवित्रता में तीनों प्रकार के रोग होते हैं। इसलिए आरोग्य की पृष्ठभूमि में स्वास्थ्य सहज अपेक्षित है । स्वास्थ्य यानी स्वस्थिति-आत्मस्थता । अध्यात्म से आत्मा का उदय होता है किन्तु साथ-साथ उससे शरीरोदय भी होता है। क्या हम स्वस्थ हैं?
क्या हम स्वस्थ हैं ?—यह प्रश्न हम किसी दूसरे से न पूछे, अपनेआप से पूछे । इस प्रश्न का उत्तर किसी दूसरे से पाने का प्रयत्न न करें किन्तु अपने-आप से ही इसका उत्तर पाने का प्रयत्न करें। यदि हमारे जीवन में समता है तो समझना चाहिए कि हम शरीर से भी स्वस्थ हैं और मन से भी स्वस्थ हैं। यदि समता नहीं है तो हम शरीर से भी स्वस्थ नहीं हैं और मन से भी स्वस्थ नहीं हैं। हम स्वास्थ्य को दो भागों में बांटते हैं। एक है शारीरिक स्वास्थ्य और दूसरा है मानसिक स्वास्थ्य । यदि हम गहरे में उतर कर देखें तो यह विभाजन जरूरी नहीं लगता। मन स्वस्थ है तो समझ लेना चाहिए कि शरीर स्वस्थ है । शरीर स्वस्थ है तो समझ लेना चाहिए कि मन स्वस्थ है। शरीर और मन-दोनों जुड़े हुए हैं। मन शरीर को प्रभावित
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