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चित्त और मन
का अधिकारी हो जाता है। यह योग न केवल साधु-संन्यासी के लिए ही है, किन्तु जो भी व्यक्ति अच्छा जीवन, सुख का जीवन जीना चाहता है वह प्रत्येक व्यक्ति इस योग का अधिकारी है। कोई भी व्यक्ति इस योग को 'छोड़कर शान्ति का जीवन नहीं जी सकता।
यह सचाई है-जीवन में शांति नहीं होती तो सुख नहीं मिलता। सुख शांति के बाद आता है। शांति के बिना सुख की सामग्री प्राप्त हो सकती है, सुख प्राप्त नहीं हो सकता। सुख प्राप्त होता है शान्ति के द्वारा और शान्ति हो सकती है गति और स्थिति के सन्तुलन के द्वारा। बहुत सारे लोग कहते हैं-मन बड़ा चंचल है, बेचैन है, अशान्त है। इसका कारण है
-अतिरिक्त प्रवृत्ति और असंतुलन । समस्या है संतुलन की
आज संतुलन कहीं नहीं है। यदि एक राष्ट्र संतुलन खो देता है तो दूसरा राष्ट्र भी अपना संतुलन खोए बिना नहीं रहता। यदि अमुक राष्ट्र परमाणु बम बनाएगा तो मुझे भी बनाना जरूरी है । यदि पाकिस्तान परमाणु बम बनाए और हिन्दुर तान नहीं बनाए तो वह सुरक्षित नहीं रह सकता। यह स्पष्ट है । अत: उसे भी परमाणु बम बनाना चाहिए। एक संतुलन खोए तो दूसरे को भी संतुलन खोना जरूरी है। यह दुनिया का एक सम्यक् व्यवहार हो गया। एक मानसिक दृष्टि से बीमार होता है तो दूसरे को भी मानसिक दृष्टि से बीमार होना जरूरी है। एक व्यक्ति आवेशपूर्ण व्यवहार करे तो दूसरे को भी वैसा करना जरूरी है। यदि वह ऐसा न करे तो मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रह जाए पर व्यक्ति मानसिक दृष्टि से स्वस्थ रहना नहीं चाहता, बीमार होना चाहता है ।
इस अवस्था में क्या यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि शस्त्र का निर्माण, शस्त्र का नियोजन, शस्त्र का व्यापार और शस्त्र का प्रयोग-ये सब मानसिक बीमारी के चिह्न हैं। इनसे प्रभावित मनुष्य तनाव से भरा रहता है। असीमित चिंतन
मानसिक तनाव का कारण है-अधिक सोचना । सोचने की भी एक बीमारी है। कुछ लोग इस बीमारी से इतने ग्रस्त हैं कि प्रयोजन हो या न हो, वे निरंतर कुछ-न-कुछ सोचते ही रहते हैं। वे इसी में अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं। प्रयोजनवश कोई प्रवृत्ति होती है तो वह सार्थक मानी जा सकती है। प्रयोजन के लिए सोचना समझ में आ सकता है। किन्तु यह नहीं कि व्यक्ति सोचता ही रहे । अधिक सोचना तनाव पैदा करता है। हम उतना ही सोचें जितना आवश्यक है। जरूरत पूरी होते ही सोचने
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