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चित्त और मन
अप्रिय भाव न आए, राग और द्वेष का भाव न आए, हिंसा-चोरी का भाव न जागे । उसी के लिए ये प्रयोग हैं। अगर इनको ही सब कुछ मान लेंगे तो भ्रान्ति पनप जाएगी। असंतुलन और अशान्ति
आलम्बनों का अपना उपयोग है। इनके बिना और प्रक्रिया के बिना कहीं पहुंचा ही नहीं जा सकता । कोई आदमी सीधा वीतरागन ही बन जाता । बहुत कठिन है वीतराग बनना । वीतराग को एक निश्चित प्रणाली से गुजरना होता है। जब उस प्रणाली का अंतिम बिन्दु आता है, व्यक्ति वीतराग बन जाता है।
__ अनुकूलता का वियोग, प्रतिकूलता का संयोग, असहायता की अनुभूति, संघर्ष, सन्देह, भय, द्वेष, ईर्ष्या, क्रूरता, क्रोध और निराशा-ये सब मन में असन्तुलन उत्पन्न करते हैं । असन्तुलित मन में अशान्ति उत्पन्न होती है। वह सुख को लील जाती है । भावना, शान्ति और सुख में कार्य-कारण का सम्बन्ध है । गीता में लिखा है
'न चाभावयतः शान्तिः, अशान्तस्य कुतः सुखम् ?'
भावना के बिना शान्ति नहीं होती, शान्ति के बिना कुछ नहीं होता। भावना संस्कार-परिवर्तन की पद्धति है। ध्येय के अनुकूल बार-बार मनन, चिन्तन और अभ्यास करने पर पूर्व-संस्कार का विलोप और नये संस्कार का निर्माण हो जाता है। मन : सत्य की भावना से भावित बने
अशान्ति के हेतुभूत संस्कारों का विलयन किए बिना कोई भी व्यक्ति शान्ति का स्पर्श नहीं कर सकता । परिस्थिति सदा एक रूप नहीं रहती। कभी वह अनुकूल होती है और कभी प्रतिकूल । अनुकूलता में जिसे हर्ष की तीव्र अनुभूति होती है, वह प्रतिकूलता में शोक की तीव्र वेदना से बच नहीं सकता। अपनी चेतना और पुरुषार्थ को सत्य की अनुभूति में प्रतिष्ठित करने वाला व्यक्ति परिस्थिति से आहत नहीं होता। असत्य का चुम्बकीय आकर्षण परिस्थिति के प्रभाव को अपनी ओर खींच लेता है। सत्य में वह चुम्बकीय आकर्षण नहीं है इसलिए परिस्थिति के प्रभाव से वह प्रभावित नहीं होता। अग्नि से बहुत सारी वस्तुएं जल जाती हैं पर अभाव नहीं जलता । परिस्थिति से वही मन जलता है, जो सत्य की भावना से प्रभावित नहीं है।
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