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चित्त और मन
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में इस क्षमता का विकास हो जाता है, जो अशुद्ध भावधारा को हटाना जानता है, वह समझदार आदमी होता है । बहुत अधिक अन्तर नहीं है । पागलपन की धारा यानी अशुद्ध भाव की धारा और समझदारी की धारा, यानी शुद्ध भाव की धारा --- दोनों सटी हुई बह रही हैं। किस धारा में आदमी कब चल जाए, कहा नहीं जा सकता ।
मागरण का संदेश
आज के शरीरशास्त्री बतलाते हैं कि हमारे मस्तिष्क में दो ग्रन्थियां हैं। एक है हर्ष की और एक है शोक की। दोनों सटी हुई हैं । हर्ष की ग्रन्थि उद्घाटित हो जाए तो हर घटना में व्यक्ति सुख का अनुभव करेगा, उसे दु:ख नहीं होगा। यदि शोक वाली ग्रन्थि खुल जाए तो फिर चाहे जितना सुख हो -जाए, व्यक्ति करोड़पति बन जाए, दुःख का अन्त होने वाला नहीं है | खतरा यही है - यदि एक को खोलते समय दूसरी खुल जाए तो सारा चौपट हो जाए । सुख और दुःख की धाराएं सटी हुई चल रही है। थोड़ा-सा पैर इधर से उधर पड़ा, बस खतरा तैयार है । इसी बिन्दु पर जागरूकता की जरूरत है ।
जागरूकता का प्रयोग मानसिक शान्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रयोग है । यह सोचा जा सकता है कि जब हमारा मन इतने प्रभावों से प्रभावित है, तब मानसिक शान्ति का हमारे सामने प्रश्न ही नहीं है । हम निरंतर मानसिक अशान्ति के चक्र में ही चलते रहेंगे । ऐसी बात नहीं है । अनेक प्रभाव आते हैं किन्तु हमारे पास सुरक्षा का साधन भी विद्यमान है । यदि हम उसका उपयोग करें तो प्रभावों से बचा जा सकता है । वह उपाय हमारे भीतर ही विद्यमान है । वह उपाय है भावशुद्धि । जो व्यक्ति निरंतर भाव को शुद्ध रखता है, उस पर ये आक्रमण नहीं हो सकते । मंद होते हैं ।
और होते भी हैं तो बहुत
शक्तिशाली उपाय
।
भावशुद्धि एक शक्तिशाली उपाय है जागरूकता बढ़ जाए तो इन खतरों से बचा जा शरीर प्रेक्षा का प्रयोग कराया जाता है । शरीर को देखना कोई बड़ी बात नहीं है । कांच के सामने खड़े होकर कितनी बार देखते होंगे शरीर को! शरीर के प्रकंपनों का अनुभव करना कौन-सा आध्यात्मिक प्रयोग है । शरीर के प्रति जागरूक होना, प्राण-शक्ति के प्रकंपनों का अनुभव करना, रासायनिक परिवर्तनों का अनुभव करना, ये मात्र आलम्बन हैं । इनके सहारे भीतर में प्रवेश कर सकते हैं। यह कोई बड़ी बात नहीं है । सबसे बड़ी बात यह है कि इन आलम्बनों के साथ चित्त को लगा दें, जिससे कि भावधारा अशुद्ध न बने, प्रिय और
यदि उसके प्रति हमारी सकता है । प्रेक्षाध्यान में
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