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चित्त और मन
बड़े महासागर 'लहारा रहे हैं, जिनकी आज की भूमि पर मिलने वाले किसी भी सागर से तुलना नहीं की जा सकती। उन सागरों के सामने, ये हमारे सागर, चाहे हिन्द महासागर हो, चाहे अटलांटिक हो, बहुत छोटे हैं, नदीनालों जैसे हैं। कोई भी अनन्त नहीं है, शान्त है, ससीम है। किन्तु हमारे भीतर तो चार अनन्त महासागर, जिनकी कोई सीमा नहीं, जिनका कोई आर-पार नहीं, लहरा रहे हैं। उनकी उत्ताल उमियां उछल रही हैं। किन्तु इस अनन्त चतुष्टयी से हम अनजान हैं।
___ अध्यात्म के आचार्यों ने मनुष्य के भीतर की गहराइयों में जाकर झांका, उस अनन्त चतुष्टयी में कुछ डुबकियां लेकर जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा की, जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया और मनुष्य के व्यक्तित्व का जो चित्र उभारा, वह हमारे सामने होता तो शायद मन की शान्ति का प्रश्न, शान्ति की समस्या, जटिल नहीं होती। उन्होंने व्यक्ति को समझा, उस आलोक में देखा और परखा कि भावशुद्धि के बिना मन की शान्ति का प्रश्न कभी समाहित नहीं हो सकता। भावशुद्धि का महत्त्व
हमारे विकास का, जीवन के विकास का सबसे बड़ा आधार है भावशुद्धि । एक धारा है भाव-शुद्धि की और दूसरी धारा है भाव-अशुद्धि की। दोनों धाराएं निरंतर प्रवहमान हैं हमारे व्यक्तित्व में। जब-जब हम भाव की अशुद्धि की धारा से जुड़ते हैं, मन की समस्याएं उलझ जाती हैं। मानसिक पागलपन, मानसिक विक्षिप्तता उभरकर सामने आ जाती है और जब-जब हम अपनी भाव-शुद्धि की धारा से जुड़ते हैं, सब कुछ ठीक हो जाता है।
पागलखाने में एक पागल भरती था। सामने घड़ी टंगी हुई थी । कोई भी आदमी पागलखाने में देखने आता तो पूछता कि समय क्या हुआ है ? अमुक समय हुआ। एक से, दूसरे से, तीसरे से पूछा और सबने यही कहा कि घड़ी ठीक चल रही है । उस व्यक्ति ने कहा कि जब घड़ी ठीक चल रही है । तो पागलखाने में इसकी क्या जरूरत है ? पागलखाने में तो ठीक की जरूरत नहीं है। समानांतर धारा
हमारे जीवन में एक पागलखाना भी चल रहा है । जितनी भाव की अशुद्धि है, वह सब पागलखाना ही है। जिस व्यक्ति का भाव की अशुद्धि के साथ में तार जुड़ गया वही पागल हो गया। पागल और कौन होता है ? जो व्यक्ति एक बात को पकड़ लेता है और उसे छोड़ नहीं सकता, वह पागल हो जाता है । एक रट लग गयी, एक धुन लग गयी, पागल हो गया। जो विचार का तांता तोड़ नहीं पाता, वह पागल बन जाता है । जिस व्यक्ति
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