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मन की शान्ति
चाहता है, उसे सबसे पहले ध्यान देना चाहिए जीभ की स्थिरता पर । जिन लोगों ने जीभ को स्थिर करना सीख लिया, मन की चंचलता का प्रश्न उनके लिए समाप्त है। जो जीभ को स्थिर करना नहीं जानते, वे चंचलता को नहीं मिटा पाते । उनके लिए मन की चंचलता का प्रश्न बना रहता है ।
मन को शांत करने के लिए शरीर के दो अवयव बहुत महत्त्वपूर्ण हैंजीभ और स्वरयंत्र । जीभ का कायोत्सर्ग और कंठ का कायोत्सर्ग-ये दो कायोत्सर्ग बहुत आवश्यक हैं। पूरे शरीर का कायोत्सर्ग होता है। शरीर के छोटे से छोटे हिस्से का कायोत्सर्ग किया जा सकता है । चित्त को शांत करने के लिए पूरे शरीर का कायोत्सर्ग लाभदायी होता है । परन्तु जीभ और स्वरयंत्र को जितना अधिक स्थिर कर सकते हैं उतनी ही मात्रा में विकल्प कम हो जाते हैं । यह कोरा सिद्धांत नहीं है, अनुभव से प्रमाणित प्रयोग है। कंठ को, स्वरयंत्र को शिथिल, शिथिलतर शिथिलतम करके देखें, कोई विकल्प नहीं आएगा। विकल्प का न आना ही अचंचलता है। "जालंधर बंध" विकल्पशून्यता के लिए उपयोगी है। ठुड्डी को कंठकूप में लगाना, इस मुद्रा में ५-१० मिनट रहना, स्वयं एक साधना है। इससे विकल्प शांत हो जाते हैं। जब जीभ और कंठ का कायोत्सर्ग होता है तब तीनों गुप्तियां अपने आप सध जाती हैं। प्रभावित होता है मन
प्रश्न है मन क्यों टूटता है ? मन में बेचैनी क्यों होती है ? मन में डिप्रेसन क्यों होता है ? मन क्यों सताता है ? उसमें कमजोरियां क्यों आती हैं ? उसमें भय क्यों उत्पन्न होता है ? अकारण ही भय क्यों सताता है ? ये समस्याएं मनुष्य को अशान्त बनाए हुए हैं। इन सारी समस्याओं से निपटने के लिए मन और मन पर होने वाले प्रभावों को समझना जरूरी
भाव, मन और प्रभाव-यह त्रिकोण है । एक कोण पर है भाव, तीसरे कोण पर है प्रभाव और बीच के कोण पर है मन । भाव मन पर बोझ लाद रहा है तो प्रभाव भी मन पर बोझ लाद रहा है । भाव और प्रभाव के बीच में बैठा है मन । वह दोनों ओर से भारी हो रहा है, दोनों पाटों के बीच में पिसता जा रहा है। कबीर ने ठीक ही कहा था-'दो पाटन के बीच में साबत बचा न कोय ।' प्रभाव अनेक प्रकार से होता है । चार दृष्टियां
भगवान महावीर ने कहा-प्रत्येक वस्तु को समझने के लिए, सचाई को समझने के लिए चार दृष्टियों का उपयोग करना होगा। वे चार दृष्टियां हैं-द्रव्य की दृष्टि, क्षेत्र की दृष्टि, काल की दृष्टि और भाव की दृष्टि ।
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