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मन की शान्ति
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दुनिया में कोई विकल्प नहीं है। वैराग्य को जगाये बिना, पदार्थ के प्रति होने वाले आकर्षण को कम किये बिना, आकर्षण की दिशा बदले बिना, चैतन्य के प्रति आकर्षण पैदा किए बिना इस मानसिक अशान्ति का कोई स्थाई समाधान नहीं हो सकता। भगवान् आकर स्वयं दवाई देने लग जाए तो भी वह असफल रहेगा, कभी सफल नहीं हो सकेगा। स्वयं अश्विनीकुमार, जो इन्द्र के वैद्य हैं, वे भी दवा देने लग जाए तो इन दवाओं के बल पर, मादक द्रव्यों के बल पर, मानसिक अशान्ति को नहीं मिटाया जा सकता । प्रश्न चेतना का है, पदार्थ का नहीं । चेतना की अशान्ति को चेतना के जागरण के द्वारा ही मिटाया जा सकता है और चेतमा का जागरण वैराग्य से ही आरम्भ होता है । हमने यदि वैराग्य का अभ्यास नहीं किया, राग की मात्रा को थोड़ा-बहुत भी कम नहीं किया तो चैतन्य का जागरण संभव नहीं बन पाएगा। वैराग्य : समता
__ चैतन्य जागरण का पहला बिन्दु है-वैराग्य । जब वैराग्य जीवन में घटित होता है तब समता अपने आप घटित होती है । दूसरा सूत्र है-समता। जिस व्यक्ति ने वैराग्य की साधना नहीं की, वह सामायिक की साधना नहीं कर सकता।
___ समत्व की प्रज्ञा जाग जाने पर मन समाहित हो जाता है। यदि व्यक्ति का मन उलझनों से भरा है, समाहित नहीं है तो समझ लेना चाहिए कि समत्व की प्रज्ञा जागी नहीं है। समत्व की प्रज्ञा जाग जाए और मानसिक उलझनों का भार भी बना रहे, यह संभव नहीं है। जब मन की समस्याएं सुलझने लगती हैं, अपने आप समाधान प्रस्तुत होता है तब मानना चाहिए कि समत्व का प्रभाव अभिव्यक्त हो रहा है । ऐसा व्यक्ति 'समाहितात्मा' कहलाता है । उसका मन पूर्ण समाहित होता है । समस्याएं आती हैं पर मन को उलझा नहीं पातीं। वे हट जाती हैं, दूर चली जाती
अध्यात्म की दृष्टि से मूलभूत तथ्य है-सामायिक-समत्व का जागरण । जब सामायिक स्थिर और दृढ़ होता है, तब पाप की समस्त धाराएं पश्चिमाभिमुख हो जाती है। समत्व के जागने पर लेश्याओं में भी परिवर्तन
हो जाता है । लेश्याएं प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम होती चली जाती हैं। • पदार्थ-निरपेक्ष आनन्द बढ़ने लगता है, मन की निर्मलता, मन की शांति
और मानसिक आनन्द प्राप्त होते हैं। एक सिक्के दो पहल
चैतन्य जागरण का तीसरा सूत्र है-प्रसन्नता । जब हम वैराग्य का अभ्यास कर लेते हैं, हमारे जीवन में वैराग्य घटित होने लग जाता है तब
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