SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ जो सहता है, वही रहता है सैद्धान्तिक भाषा में कहा जाता है कि क्रोध, अहंकार और माया के नष्ट हो जाने पर भी लोभ बचा रहता है। परिधि के समाप्त हो जाने पर भी केन्द्र बच जाता है। सब नष्ट हो जाते हैं, लोभ सबके अंत में नष्ट होता है। केन्द्र में लोभ है और उसने ममता की एक ग्रंथि पैदा की है। इसीलिए मनुष्य के जीवन में निषेधात्मक विचारों का साम्राज्य है। विधेयात्मक विचार कम आते हैं, निषेधात्मक विचार अधिक आते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के मन में भय की भावना उभरती रहती है। अनिष्ट की कल्पना और आशंका आती रहती हैं। ऐसा या वैसा हो जाएगा की चिंता से आदमी का मन डरा रहता है। प्रत्येक व्यक्ति यदि आत्मावलोकन करे, आत्मनिरीक्षण करे तो उसे सहज ज्ञात हो जाएगा कि उसमें नब्बे प्रतिशत विचार निषेधात्मक और मुश्किल से दस प्रतिशत विचार ही विधायक हैं। जब आदमी ध्यान की अवस्था में होता है, तब वे सारे निषेधात्मक विचार उभरते हैं, उनका जाल बिछ जाता है। प्राचीन साहित्य में देवों के साथ जुड़ी हुई अनेक घटनाओं का विवरण मिलता है। यदि ध्यान और साधना के संदर्भ में इनकी व्याख्या की जाए तो वहाँ देव, पिशाच या राक्षस नहीं टिकेंगे। देव, राक्षस या पिशाच सब हमारे निषेधात्मक विचार ही हैं। __भगवान महावीर के युग की घटना है। वाराणसी नगरी में एक श्रमणोपासक रहता था। उसका नाम चुलनीपिता था। उसने भगवान महावीर से धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार की और सतत धर्म-जागरिका करने लगा। एक दिन वह पौषधशाला में साधना कर रहा था। दिन बीता, रात आई। आधी रात बीत गई। वह जागरूक था, इसलिए सो नहीं रहा था। ध्यान की साधना चल रही थी। चारों ओर अंधकार ही अंधकार था, पर उसका अन्तःकरण ध्यान की ज्योति से जगमगा रहा था। सोने के समय ध्यान की साधना अच्छी चलती है। अंधकार में प्रकाश की साधना ज्यादा अच्छी चलती है। प्रकाश और प्रकाश का मेल नहीं होता। अंधकार में प्रकाश का अधिक मेल बैठता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy