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समता की दृष्टि
मन पुनः आशंका से भर गया। उत्पन्न होना भी तत्त्व है और विनष्ट होना भी तत्त्व है। उत्पन्न होना और नष्ट होना, जन्म लेना और मर जाना, यह तत्त्व कैसे हो सकता है? जन्मा और मरा, फिर शेष क्या रहा? बात पूरी समझ में नहीं आई।
उन्होंने फिर पूछा, 'भन्ते! किं तत्त्वम् ?' तत्त्व क्या है?
भगवान ने कहा, 'ध्रुवेई वा।' ध्रुव रहना, शाश्वत रहना तत्त्व है।
गौतम का मन समाहित हो गया। उत्पन्न होना, नष्ट होना और अपने अस्तित्व में बने रहना, त्रिपदी तत्त्व है, सत्य है। सृष्टि, प्रलय और अस्तित्व, यह तत्त्व है। शाश्वत और अशाश्वत का एक युगल है। जैसे स्त्री और पुरुष का एक जोड़ा होता है, वैसे ही प्रकृति में भी एक जोड़ा होता है, शाश्वत और अशाश्वत का। कोरा शाश्वत या नित्य भी नहीं और कोरा अशाश्वत या अनित्य भी नहीं। इस सृष्टि में कोरा नित्य होता, तो उसके नामकरण की सुविधा नहीं होती। क्या नाम रखा जाए? यदि अनित्य है, तब तो नित्य को जाना जा सकता है और नित्य है तो अनित्य को जाना जा सकता है। किन्तु यदि कोरा नित्य होता या कोरा अनित्य होता, तो कोई नामकरण नहीं हो पाता। यदि कोरा प्रकाश होता, अंधकार नहीं होता, तो प्रकाश का नामकरण ही नहीं हो पाता। जितने नाम बनते हैं, वे विराधी के आधार पर बनते हैं। विरोधी दल का होना, यह केवल राजनीतिक विचार ही नहीं है। विरोधी का होना मूलभूत सिद्धान्त है। सारी प्रकृति की व्याख्या का, सारे तत्त्व की व्याख्या का, यदि विरोधी न हो, तो कोई तत्त्व हो ही नहीं सकता। कोई तत्त्व है, कोई सत्य है, इसका अर्थ है कि उसका विरोधी तत्त्व अवश्य है। यदि विरोधी न हो तो तत्त्व का अस्तित्व ही नहीं हो सकता । चेतन का अस्तित्व तब है, जब अचेतन है और अचेतन का अस्तित्व तब है, जब चेतन है। चेतन के बिना अचेतन और अचेतन के बिना चेतन का अस्तित्व नहीं हो सकता। दोनों का होना अनिवार्य है। अनेकांत सूत्र
अनेकांत का एक सूत्र है-सह प्रतिपक्ष । केवल युगल ही पर्याप्त नहीं है,
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