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जो सहता है, वही रहता है है। वह स्वभाव से इतना उदार नहीं है कि सहज ही किसी को मान्यता दे सके। नई पीढ़ी में मान्यता प्राप्त करने की छटपटाहट होती है और पुरानी पीढ़ी में अपना अहं होता है, अपना मानदंड होता है, इसलिए वह नई पीढ़ी को मान्यता देने में सकुचाती है। यह संघर्ष साहित्य, आयुर्वेद, धर्म और सभी क्षेत्रों में रहा है। 'पुराना होने मात्र से सब कुछ अच्छा नहीं होता', महाकवि कालिदास का यह स्वर दो पीढ़ियों के संघर्ष से उत्पन्न हुआ है। उनके काव्य और नाटक के प्रति पुराने विद्वानों ने उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया, तब उन्हें यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ा कि पुराना होने मात्र से कोई काव्य उत्कृष्ट नहीं होता और नया होने मात्र से कोई काव्य निकृष्ट नहीं हो जाता। परीक्षा के बाद ही किसी काव्य को उत्कृष्ट या निकृष्ट बताया जाना चाहिए। सत्य के विविध आयाम
मनुष्य हमेशा से ही यह जानने के लिए जिज्ञासु रहा है कि सत्य क्या है? जब से मनुष्य ने सोचना शुरू किया, तब से उसके मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि सच्चाई क्या है? वास्तविकता क्या है? तत्त्व क्या है? 'किं तत्त्वम?' यह प्रश्न हमारी सृष्टि में लाखों-लाखों बार पूछा गया। जिसकी भी प्रज्ञा जागी, उसने यह प्रश्न अवश्य ही किया।
एक बार गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा, 'किं तत्त्वम् ?' तत्त्व क्या है? भगवान ने कहा, 'उपन्नेइ वा।' उत्पन्न होना तत्त्व है, उत्पाद तत्त्व है।
मन में संदेह उभरा कि यदि उत्पन्न होना ही तत्त्व है, तो लगातार उत्पाद होता चला जाएगा। आबादी इतनी बढ़ जाएगी कि पैर टिकाने लायक जगह भी नहीं मिलेगी। प्राणी से प्राणी सट जाएगा, पदार्थ से पदार्थ सट जाएगा और फिर आगे जन्म लेने वालों के लिए कहीं अवकाश नहीं रहेगा। बड़ी समस्या हो जाएगी।
उत्पाद वाली बात समझ में नहीं आई, तब गौतम ने फिर पूछा, 'किं तत्त्वम् ?' तत्त्व क्या है?
भगवान ने कहा, 'विगमेड़ वा।' विनष्ट होना तत्त्व है।
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