________________
४६
जो सहता है, वही रहता है समस्याओं का समाधान पा लेता है। चिंतन की दो दृष्टियाँ हैं, निषेधात्मक दृष्टि
और विधायक दृष्टि। आदमी बहुत बार निषेधात्मक दृष्टि से ही सोचता है, विधायक दृष्टि से नहीं सोचता। निषेधात्मक दृष्टि से सोचने का परिणाम होता है निराशा, अनुत्साह, आवेग, कार्य से निवृत्ति, कर्तव्य से अपसरण। एक शब्द में कहें तो निषेधात्मक दृष्टि का परिणाम है जीवन में असफलता का उदय।
जीवन की सफलता का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है विधायक दृष्टि से सोचना। विधायक दृष्टि से वही व्यक्ति सोच सकता है, जिसने ध्यान का मर्म समझा है, जिसने चित्त को निर्मल करना सीखा है, जिसने मन को एकाग्र करना सीखा है और जिसने राग-द्वेष के मलों को साफ करना सीखा है।
विधायक दृष्टिकोण और निषेधात्मक दृष्टिकोण की कुछ कसौटियाँ हैं। उनमें एक कसौटी है, समग्रता की दृष्टि और व्यग्रता की दृष्टि । समग्रता की दृष्टि से चिंतन करने वाला व्यक्ति विधायक दृष्टि से सोच सकता है और व्यग्रता की दृष्टि से चिंतन करने वाला एकांगी आग्रह में फँस जाता है, वह अपने चिंतन को विकृत बना देता है।
... जब व्यक्ति के सामने घटना या वस्तु का पूरा चित्र नहीं होता, अधूरा चित्र होता है, तब उसके आधार पर किया गया चिंतन भी अधूरा ही होगा। वह सही नहीं हो सकता। सम्यक् और संतुलित चिंतन के लिए समग्रता का दृष्टिकोण जरूरी है। जब विधायक या समग्रता का दृष्टिकोण होता है, तब अनेक संघर्ष स्वयं टल जाते हैं। जब व्यग्रता का दृष्टिकोण होता है, तब आग्रह पनपता है और संघर्ष उभर आते हैं।
स्वर्णिम सूत्र बुरी आदत को बदलना है तो नई आदत के निर्माण
के लिए नए विकल्प की खोज करो। निर्विकल्प समाधि तक नहीं पहुंच जाओ तब तक
विकल्प की खोज जरूरी है।
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org