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जीवन में परिवर्तन कम हो जाती है। पित्त की उत्तेजना कम होती है तो मन अपने आप शांत हो जाता है। पित्त का मन पर जो प्रभाव होता है, वह है क्रोध का अतिरेक। पित्त बढ़ने का जो समय होता है, विशेषतः वह मध्याह्न का समय है। दोपहर के समय किसी व्यक्ति से कोई बहुत गहरी बात नहीं करनी चाहिए। ऐसे काम के लिए ऐसा समय चुनना चाहिए, जब पित्त शांत रहे। सोचने की कला
प्रसिद्ध दार्शनिक देकार्ट ने कहा, 'मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ। मेरे अस्तित्व का प्रमाण है कि मैं सोचता हूँ और सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ।'
यदि मुझे कहना पड़े तो मैं इसे तर्क की भाषा में कहूँगा, “मैं हूँ और विकसित मस्तिष्क वाला प्राणी हूँ, इसलिए सोचता हूँ।'
सोचना मस्तिष्क का लक्षण नहीं है। सोचना एक अभिव्यक्ति है, वह लक्षण नहीं बन सकता। हमारा अस्तित्व और चैतन्य चिंतन से परे है, सोचने से परे है। सोचना ज्योति का एक स्फुलिंग मात्र है, समग्र ज्योति नहीं है। न सोचना ज्योति का अखंड रूप है।
__ध्यान-साधना के द्वारा हम उस स्थिति तक पहुँचना चाहते हैं, जहाँ सोचने की बात समाप्त हो जाती है, जहाँ साक्षात्कार संभव हो जाता है। जहाँ साक्षात् होता है, वहाँ सोचने की आवश्यकता नहीं रहती। साक्षात् होने पर वस्तु हस्तामलकवत्' स्पष्ट हो जाती है। हथेली पर आँवला रखा हुआ है। वह जो कुछ है, उसका ही साक्षात्कार हो रहा है। उसके विषय में सोचने की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्यक्ष में जहाँ दर्शन होता है, वहाँ चिंतन नहीं होता और जहाँ चिंतन होता है, वहाँ दर्शन नहीं होता।
हम तीन स्थितियों का अनुभव करते हैं, जानना, देखना और सोचना । एक आदमी ने पूछा, 'आपके नौकर ने अमुक काम किया या नहीं?' मालिक बोला, 'मुझे ज्ञात नहीं है। मैं जानकारी करके बताऊँगा।' इस स्थिति में सोचने की बात प्राप्त नहीं होती। जो घटना किसी दूसरे से संबद्ध है, उसके लिए सोचा नहीं जा सकता। वहाँ चिंतन काम नहीं देता।
एक आदमी ने पूछा, 'आपके घर में अमुक वस्तु है?' उसने कहा, 'भाई! याद नहीं है, देखकर बताऊँगा।' यहाँ भी सोचना काम नहीं आएगा। एक घटना है, 'जानकारी करके बताऊँगा' और दूसरी घटना है, 'देखकर
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