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________________ जीवन में परिवर्तन ३९ वाला तत्व है। हम किसी से पूछते हैं कि घड़ी में कितने बजे हैं ? उत्तर मिलता है- 'पाँच ।' प्रश्न होगा - 'कैसे जाना ?' तो व्यक्ति कहेगा, 'आँखों से देख रहा हूँ।' यह बात भी ठीक है, किन्तु और गहरे में जाएँ तो पता चलता है कि वायु साथ में जुड़ती है तो आँख से दिखाई देता है। वायु साथ में न जुड़े तो आँख से दिखाई नहीं देगा। शरीर में जो कुछ है, उसे संचालित करने वाला तत्त्व है वायु। इससे वायु का महत्त्व स्वयंसिद्ध है, किन्तु शरीर में जब वायु तत्त्व की वृद्धि हो जाती है, उसका अतिरेक हो जाता है तो समस्याएँ पैदा होती हैं । चंचलता भी मन की समस्या है और इसे पैदा करने वाला तत्त्व है वायु । मन को चंचल बनाकर यह तत्त्व पीछे हट जाता है । चंचलता एक आदमी किसी होटल में खाना खाने गया । खाना बहुत खराब था | बैरे को बुलाकर कहा, 'कहाँ है तुम्हारा मैनेजर ? यहाँ कितना रद्दी खाना खिलाया जाता है ?' बैरा बोला, 'महाशय, मैनेजर साहब सामने वाले होटल में खाना खाने गए हैं।' बड़ी विचित्र बात है । अपने होटल में दूसरों को खाना खिलाता है और खुद दूसरों के होटल में जाकर खाता है। दूसरों के लिए समस्या पैदा करने के बाद पीछे हट जाना कुछ लोगों की प्रवृत्ति भी होती है। ऐसे तत्त्व भी हैं, जो काम करते हैं और पीछे हट जाते हैं । वायु भी ऐसा तत्त्व है, जो बहुत सारी समस्याएँ पैदा करने के बाद परदे के पीछे चला जाता है। हमारे सामने आती है। मन की चंचलता । वायु सामने नहीं आती। जब भी मन की चंचलता का आभास हो, यह परीक्षण कर लेना चाहिए कि शरीर में वायु का प्रकोप कैसा है ? यह बात सही है कि मन है तो चंचलता होगी। चंचलता जीवन के लिए आवश्यक भी है, किन्तु ज्यादा बढ़ जाने पर वह समस्या बन जाती है । विवशता चंचलता का मुख्य कारण वायु का प्रकोप है। जिस व्यक्ति में चंचलता अधिक है, उसे सोचना चाहिए कि इतनी चंचलता है, यह कहीं वायु का प्रकोप तो नहीं है ? यदि है तो क्यों ? इसका कारण भी खोजना चाहिए। कारण और उपाय, दोनों की खोज आवश्यक है। मन की पवित्रता के लिए, मन की मलिनता दूर करने के लिए शरीर पर पूरा ध्यान देना होगा, शारीरिक तत्त्वों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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