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जो सहता है, वही रहता है मन की मीमांसा
ध्यान की साधना करने वाले बहुत बार कहते हैं कि ध्यान सदा एक जैसा नहीं होता। कभी अच्छा होता है, कभी नहीं होता है। मन भी उसमें सदा एक जैसा नहीं लगता। कभी मन पूरा लगता है, कभी नहीं लगता है। उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। हम ध्यान की बात छोड़ दें, सामान्य जीवन में भी व्यक्ति के सामने यह समस्या रहती है, मन की स्थिति सदैव एकरूप नहीं रहती। कभी मन में बड़ा उत्साह होता है और कभी अवसाद छा जाता है। कभी प्रसन्नता
और कभी दुःख का अनुभव। कभी अचानक बेचैनी हावी हो जाती है। यह सब क्यों होता है? बहुत गहराई में जाकर मनोविज्ञान की दृष्टि से इस विषय को मीमांसित करें तो पाएंगे कि जैसे-जैसे शरीर में रसायन बदलते हैं, वैसे-वैसे मन की स्थिति बदलती रहती है। हमारी मानसिक स्थितियों के बदलाव में रसायनों का बहुत बड़ा हाथ है। मन और मनन
कोई अप्रिय घटना घटती है, मन में दुःख आता है। यह बात सहज समझ में आती है, किन्तु किसी अप्रिय घटना के न घटने पर भी मन दुःखी हो, तब समझने में कुछ कठिनाई होती है। स्थानांग सूत्र में क्रोध का कोई आधार नहीं है। केवल क्रोध ही नहीं, अहंकार, लोभ, दुःख, भय जैसे सारे आवेग कभी-कभी अहेतुक उत्पन्न हो जाते हैं। अकारण या अहेतुक वस्तु की व्याख्या करने में आदमी कठिनाई महसूस करता है। इस बात को हम शरीर और मन के संबंध से जोड़कर नहीं देखेंगे तो हमें समाधान नहीं मिलेगा। .. ___ हम शरीर और मन के संबंध में जानें। शरीर मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को प्रभावित करता है। शरीर में होने वाले विकार मन को बहुत प्रभावित करते हैं। बाहर से हमें पता नहीं चलता कि भीतर क्या हो रहा है? किन्तु भीतर एक प्रक्रिया चलती रहती है और मन की अवस्थाएँ बदलती चली जाती हैं। आयुर्वेद में इस विषय पर बहुत सूक्ष्मता से चिंतन किया गया है, मीमांसा की गई है। कहा गया है कि शरीर में तीन दोषों का साम्य होता है तो आदमी स्वस्थ रहता है। वात, पित्त और कफ में कोई अवस्था आती है तो हमारे मन की स्थिति बिगड़ जाती है, हमारा व्यवहार भी बिगड़ जाता है। संचालक तत्त्व
सबसे पहले हम वायु को लें। वायु सारी प्रवृत्तियों को संचालित करने
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