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जो सहता है, वही रहता है घ्राणशक्ति किसी की नहीं होती। उसकी घ्राणशक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह गंध के सहारे सैकड़ों मील तक चला जाता है। आज भी कुत्तों का उपयोग अपराधियों और हत्यारों को पकड़ने में किया जाता है। आदमी नहीं पकड़ पाता। कुत्ते पकड़ लेते हैं, गंध के सहारे से। उसमें गंध-विश्लेषण की शक्ति है । अपराध के स्थान पर जो गंध है, वह किस आदमी की गंध है, उस गंध को पकड़ते-पकड़ते वे कुत्ते अपराधी को पकड़ लेते हैं और उसके पास जाकर घूमने लग जाते हैं, चक्कर काटने लग जाते हैं। बड़ी तेज होती है उनकी घ्राणशक्ति । आदमी जैसे-जैसे भागता है, एड्रीनल ग्रंथि का स्राव ज्यादा होता है। गंध फूटती है और उसी के सहारे कुत्ता भी दौड़ता है। अब बाहरी कारण खोजें तो पता नहीं चलेगा। कारण की खोज भीतर करनी होती है। बाहरी कारण तो ऐसा ही लगता है कि कुत्ता काटने दौड़ता होगा। आदमी इस डर से भागा जा रहा है कि कुत्ता काटने आ रहा है और कुत्ता इस प्रलोभन से भाग रहा है कि बड़ी अच्छी गंध आ रही है। एक के सामने प्रलोभन है, दूसरे के सामने भय है।
दुनिया में दो ही अपराध हैं। एक भय का अपराध और दूसरा प्रलोभन का अपराध। कोई आदमी डरकर काम कर रहा है और कोई लालच से काम कर रहा है। हमारी सारी सामाजिक प्रेरणाएँ, इन दो सीमाओं में काम कर रही हैं। स्वयं पर स्वदृष्टि
व्यक्ति शरीर की सीमा में जीता है। यह शरीर एक प्राकृतिक सीमा है। कोई भी व्यक्ति शरीर से मुक्त नहीं है और इस सीमा से भी मुक्त नहीं है। जहाँ सीमा होती है, वहाँ कुछ अलग बात बन जाती है। एक व्यक्ति का दूसरे से अलगाव है, चाहे कितना ही नजदीक बैठा हो, कितना ही निकट का संबंधी हो, फिर भी इस अलगाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि शरीर ने एक सीमा बना दी। दो व्यक्ति पास बैठे हैं। दोनों का संवेदन भिन्न-भिन्न हो रहा है। एक चिंता में डूब रहा है, दूसरा प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। चाहे सगे भाई हैं, पिता-पुत्र हैं, पक्के मित्र हैं, बहुत परिचित हैं और बहुत निकट बैठे हैं, फिर भी दोनों का संवेदन भिन्न-भिन्न चल रहा है। एक बहुत प्रसन्न, दूसरा बहुत अप्रसन्न। यह क्यों? कहा है, 'पत्तेयं विन्नु, पत्तेयं वेयणा।' ज्ञान प्रत्येक का होता है और संवेदन भी प्रत्येक का अपना-अपना
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