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________________ जो सहता है, वही रहता है तीन निर्देश महावीर ने मुनि को स्वार्थ की बात नहीं सिखाई। उन्होंने यह नहीं कहा कि तुम केवल अपना कल्याण कर लो। मुनि के लिए महावीर ने कहा- तिन्नाणं तारयाणं, तुम स्वयं तरो, पर अकेले नहीं, दूसरों को भी तारो । स्वयं बुद्ध बनो, पर अकेले नहीं, दूसरों को भी बोधि दो । स्वयं मुक्त बनो, समस्याओं से मुक्ति पाओ, पर अकेले नहीं, दूसरों को भी समस्याओं से मुक्त करो । महावीर के ये तीन निर्देश बहुत महत्त्वपूर्ण हैं • स्वयं तरो, दूसरों को तारो • स्वयं बुद्ध बनो, दूसरों को बोधि दो। • स्वयं समस्या से मुक्ति पाओ, दूसरों को भी समस्याओं से मुक्ति का मार्ग दो । संक्रमणशील है संसार दुनिया में कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता । हम यह मान लेते हैं कि जो हिमालय की गुफा में बैठा है, वह अकेला है, पर वह भी वास्तव में अकेला नहीं है । क्या वह ऑक्सीजन नहीं ले रहा है? क्या वह प्राणवायु नहीं ले रहा है ? हमारा संसार इतना संक्रमणशील है कि कोई अकेला रह ही नहीं सकता । मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के पुद्गल सारे संसार में फैलते हैं और सबको प्रभावित करते हैं। प्रशिक्षण का सूत्र यह है कि हम सहन करना सीखें । आचार्य भिक्षु ने कितना सहा। उनका सारा जीवन सहिष्णुता का प्रतीक है । वचनों के प्रहार, गालियाँ, अपमान और मुक्कों की मार, सब कुछ सहा । बहुत सहा, लेकिन किसी पर भी आक्रोश नहीं किया। हम आचार्य भिक्षु की अनेक विशेषताएँ जानते हैं, किन्तु उनकी सबसे बड़ी विशेषता है-सहिष्णुता । कहा गया है 'खमा सूरा अरहंता', तीर्थंकर क्षमाशूर होते हैं। भगवान महावीर ने कितना सहन किया। आचार्य भिक्षु ने भी क्या-क्या नहीं सहा । सहिष्णुता का कवच कार्यकर्त्ता को सहिष्णु और वज्रपंजर बनना चाहिए। मंत्र साधक मंत्र की साधना से पहले पंजर की साधना करता है। जो वज्रपंजर या कवच की साधना में सफल नहीं हो सकता, उसे मंत्र की साधना में बहुत समस्याएँ आती हैं, विघ्न और बाधाएँ आती हैं। यदि व्यक्ति वज्रपंजर का निर्माण कर लेता है, तो फिर चाहे भूत आए, पिशाच आए या राक्षस आए, कोई भी उसे भेद कर प्रवेश नहीं कर सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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