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दिशा और दशा
१७३ महत्तर का पद दिया। उसे बहुत सम्मान दिया। वही पद अहंकार के चपेटे खाते-खाते मेहतर बन गया और घृणित हो गया। उसे नीच माना जाने लगा। जो बड़ा होता है, वह सामाजिक परिवर्तन का कारण बनता है। सत्ता में ऐसे शासक आए, जिनका अहंकार भी प्रबल हो गया, घृणा भी प्रबल हो गई और उसके आधार पर समाज-व्यवस्था बनी। समाज के जो पुरोधा वर्ग के लोग थे, उन्होंने इसमें अहं भूमिका निभाई। समाज का बिखराव
आश्चर्य यह है कि धर्म ने इस विषमता को समर्थन दिया। इस मान्यता को धार्मिक रूप दे दिया, एक छोटा होता है और एक बड़ा। जातिवाद धर्म से जुड़ा हुआ है। यह धर्म का तत्त्व है, जिसने अच्छा कर्म किया, वह बड़ा बन गया। जिसने अच्छा कर्म नहीं किया, वह नीचा बन गया। वैदिक परम्परा में इस बात को स्वीकार किया गया कि जातिवाद तात्विक है। जन्मना जाति होती है। जैन आचार्यों ने इस बात का खंडन किया, जातिवाद तात्विक नहीं है। जन्मना जाति नहीं होती। जातिवाद काल्पनिक है। यह मनुष्यकृत है, ईश्वरकृत नहीं। जैन धर्म की यह स्वीकृति है। इसमें न जातिगत भिन्नता या विशेषता मान्य हो सकती है और न घृणा की बात मान्य हो सकती है। श्रमण परम्परा और वैदिक परम्परा में यह एक मौलिक भेद रहा है, किन्तु कालक्रम से इतना प्रभाव आया कि जैन भी अपना सिद्धान्त भूल गए। जैनों ने जातिवाद को इस प्रकार पकड़ लिया, मानो यह उनकी ही बपौती हो। आज जैन परम्परा में ऐसे लोग हैं, जो जातिवाद में विश्वास करते हैं और शूद्र के प्रति अत्यंत घृणा का भाव रखते हैं। जातिवाद की इस विकरालता का दक्षिण भारत में बहुत प्रभाव रहा। यह धारणा भी बन गई कि जिस गली से चांडाल निकलता है, उस गली से ब्राह्मण निकलना पसंद नहीं करता। स्पर्श तो दूर की बात है, चांडाल की छाया पड़ जाए तो भी अपवित्र हो जाए। जहाँ इस प्रकार की मानसिकता हो, वहाँ समाज में बिखराव न हो, यह कैसे संभव है? इस विषम स्थिति में ही आरक्षण की बात आती है। आरक्षण के लिए आंदोलन होते हैं। कहा जा रहा है कि जातिवाद के नाम पर जितने पाप कमाए हैं, आरक्षण उन पापों का प्रायश्चित है।
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