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________________ दिशा और दशा जाते हैं कि इस व्यक्ति का हृदय परिवर्तन हो गया है। आत्मानुशासन का विकास समाज और सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का एक महत्त्वपूर्ण अवदान है। आत्मानुशासन के बिना अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती । अहिंसा का पूरा विकास आत्मानुशासन के आधार पर ही किया जा सकता । अहिंसा का पूरा विकास आत्मानुशासन के आधार पर हुआ है । हृदय परिवर्तन का दूसरा सूत्र है, 'अभय का विकास' । अभय के बिना भी अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती । भय मौलिक मनोवृत्ति है। आदमी डरता है। डर समूचे जीवन में व्याप्त है। आदमी को भूत, भविष्य और वर्तमान, तीनों कालों का भय सताता रहता है। आदमी अतीत के भय से त्रस्त हो जाता है । जो घटना घट चुकी है, जो घटना चली गई, उसका भी भय आदमी के संस्कारों में अंकित हो जाता है और वह पूरे जीवन में भयभीत रहता है । - १६७ आदमी के जीवन में एक घटना घटी। वह उससे डर गया । उसने भय को मिटाने के उपाय किए, पर सफलता नहीं मिली। एक व्यक्ति से पूछा । उसने कहा, 'सबसे सरल और अचूक उपाय यह है कि तुम घटना को भूल जाओ। उसे याद मत करो।' उसे यह उपाय अच्छा लगा। अब वह निरंतर यह सोचने लगा, 'मुझे उस घटना को भूलना है', 'मुझे उस घटना को भूलना है ।' भूलने - भूलने के बहाने स्मृति की पकड़ इतनी मजबूत हो गई कि वह घटना हमेशा तरोताजा रहने लगी। अतीत का भय रहता है । भय की स्मृतियाँ बहुत सताती हैं । आदमी को वर्तमान का भय भी सताता है। यह न हो जाए, वह न हो जाए, चोर न आ जाए, अफसर न आ जाए। वर्तमान का यह भय भी बहुत पीड़ादायक होता है । भविष्य का भय कल्पनाजनित भय है । वह भी कम भयानक नहीं होता । आदमी बार-बार सोचता रहता है कि अवस्था आ रही है, बूढ़ा हो जाऊँगा तो क्या होगा ? क्या बच्चे सेवा करेंगे? क्या भोजन सुख से मिल पाएगा? धन नहीं रहेगा तो क्या करूँगा ? अस्वस्थ हो जाऊँगा तो क्या होगा ? इस प्रकार एक के बाद दूसरी चिंता उसे घेरे रहती है। डर मनुष्य के जीवन में क्षण-क्षण साथ चलता है, किन्तु मनुष्य ने विकास किया अभय का । साधना करते-करते इतना विकास हो जाता है कि भय शब्द ही समाप्त हो जाता है। आदमी ने उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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