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जो सहता है, वही रहता है
साँपों के साथ भी मैत्री की स्थापना की, जिनका नाम सुनते ही वह कांप उठता है। उसने ऐसे हिंसक पशुओं के साथ भी मैत्री स्थापित की, जो आदमी को मारकर खा जाते हैं। आदमी ने मैत्री का विकास किया, अभय का विकास किया । जैसे-जैसे जीवन में अहिंसा, अभय और मैत्री का विकास होता है, सभी प्राणी मित्र बन जाते हैं ।
अहिंसा की शक्ति
लोग दंड-शक्ति से परिचित हैं, इसलिए उसमें विश्वास जमा हुआ है। अहिंसा में जो शक्ति है, वह हिंसा या दंड में नहीं है । पर दूसरों के नियंत्रण के लिए उसका कोई उपयोग नहीं है। दूसरों का नियंत्रण दंड-शक्ति ही कर सकती है । इसलिए लोग चाहते हैं कि दंड की शक्ति चलती रहे । उसके बिना अराजकता की स्थिति हो जाएगी। अनेक राष्ट्रों में अन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न के विरोध में हिंसक क्रांतियाँ हुईं। वे अपने लक्ष्य में सफल हुईं । विश्वास दृढ़ हो गया कि हिंसा सफल होती है। हिंसा की सफलता का मतलब है भौतिक लक्ष्य की पूर्ति ।
आज अहिंसा की सफलता का मानदंड भी वही है । आर्थिक कठिनाइयों को मिटा सकी तो अहिंसा सफल हुई, यह माना जाएगा और उन्हें न मिटा सकती तो विफल । सचमुच यह भूल हो रही है, अहिंसा को लक्ष्यहीन किया जा रहा है। अहिंसा का लक्ष्य जीवनशोधन है। उसे अधिक प्रभावशाली किया जाए तो कठिनाइयों को पार करने का द्वार अपने आप खुलता है । अहिंसा का प्रयोग आर्थिक गुत्थी को सुलझाने के लिए किया जाए तो उससे परोक्षत: हिंसा को ही सहारा मिलता है ।
आर्थिक समस्या के समाधान का सूत्र 'सामाजिक साम्य' हो सकता है। अहिंसा का स्वरूप पवित्रता है, इसलिए वह व्यापक होने पर भी वैयक्तिक है । व्यवस्था का स्वरूप नियंत्रण है । उसमें स्थिति के समीकरण की क्षमता है । इसलिए व्यवस्था के परिणाम से अहिंसा का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए । उसकी सफलता जीवन की पवित्रता में है। स्वतंत्रता की रक्षा अहिंसा से हो सकती है। हिंसा या दंड-शक्ति की माया जितनी बढ़ती है, उतनी ही परतंत्रता बढ़ती है । मानवीय सफलता का सर्वाधिक उत्कर्ष स्वतंत्रता है और वह अहिंसा के द्वारा ही लभ्य है ।
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