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व्यक्तित्व के विविध रूप
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सहन न करने की बीमारी है। कोई किसी को सहन करना जानता ही नहीं। न बाप बेटे को सहन करना जानता है और न बेटा बाप को सहन करना जानता है। जहाँ बेटे की प्रशंसा की जाती है, वहाँ बाप का मुँह उतर जाता है। वह सोचता है मेरी नहीं मेरे बेटे की प्रशंसा कर रहा है। उसका मन ईर्ष्या से भर जाता है। भय
भय एक प्रबल मानस दोष है। आदमी में भय इतना भरा पड़ा है कि वह निरंतर भयभीत रहता है। आज ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिलता, जिसे पूर्ण अभय कहा जा सके। भगवान महावीर ने कहा-'सव्वओ अप्पमत्तस्स णस्थि भयं' जो अप्रमत होता है, वह अभय होता है, उसे कहीं से भी भय नहीं होता। एक भी व्यक्ति मिलना मुश्किल है जो कहीं भी प्रमाद न करे। कहीं न कहीं कोई चूक, कोई विस्मृति हो जाती है। प्रमाद होता है तो भय होता है। जिस व्यक्ति के मन में थोड़ी भी आकांक्षा शेष है, वह कभी अभय नहीं हो सकता। वह सोचता है-बात तो सही है, किन्तु कह दूँगा तो सामनेवाला विरोध करने लग जाएगा। बस, तभी कहीं मन के एक कोने में अवरोध पैदा होता है, वह सच्चाई से दूर चला जाता है, अप्रमत्त नहीं रह जाता, प्रमाद में चला जाता है। जहाँ-जहाँ प्रमाद, वहाँ-वहाँ भय और जहाँ-जहाँ भय, वहाँ-वहाँ मानसिक स्वास्थ्य की गिरावट । आज मानसिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति किसे कहा जाए? यह एक बड़ा प्रश्न है। वीतराग की भूमिका
मानसिक दृष्टि से स्वस्थ आदमी को खोजना बड़ा मुश्किल है। अध्यात्म के क्षेत्र में एक व्यक्ति का ऐसा चरित्र मिलता है, जिसे मन की दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ कहा जा सकता है। वह है वीतराग या अप्रमत्त । साधना की भूमिकाओं में पाँचवीं भूमिका गृहस्थ श्रावक की होती है। छठी भूमिका है मुनि की। अप्रमत्त मुनि को मानसिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ कहा जा सकता है, किन्तु उसके साथ यह समस्या जुड़ी हुई है कि अप्रमा, अवस्था ज्यादा समय तक टिकती नहीं है। छठी भूमिका वाला मुनि प्रमत्त भूमिका में जीता है। वह कभी-कभी अप्रमत्त भूमिका में जाता है, किन्तु फिर प्रमत्त की भूमिका में आ जाता है। वह
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