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नहीं हैं तो सही अर्थ में आस्तिक भी नहीं है । आस्तिक और नास्तिक- दोनों होना ही यथार्थ है।
संदर्भ कर्तृत्व का
प्रश्न है-क्या जैन दर्शन ईश्वर को स्वीकार करता है ? वह ईश्वरवादी है या अनीश्वरवादी ? इस प्रश्न का उत्तर अनेकांतदृष्टि से दिया जा सकता है- जैन-दर्शन ईश्वरवादी भी है और अनीश्वरवादी भी है । ईश्वर की एक परिभाषा की जाती है-'कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थः ईश्वरः'-जो ईश्वर है, वह सब कुछ करने में समर्थ है । इस परिभाषा के संदर्भ में कहा जा सकता है- जैन दर्शन अनीश्वरवादी है । ईश्वर के साथ जो कर्तृत्व की अवधारणा जुड़ी हुई है, वह जैन-दर्शन सम्मत नहीं है । ईश्वर सृष्टि का कर्ता है, भाग्य का विधाता है, न्यायाधीश है, सबका न्याय करता है, इस परिभाषा को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता ।
सन्दर्भ एकत्व का
कहा गया-ईश्वर एक है, अनेक नहीं हो सकता । सृष्टि की संरचना का संचालन करने वाला ईश्वर अनेक हो जाए तो परस्पर विग्रह की स्थिति पैदा हो जाए । एक ईश्वर कहेगा-सृष्टि का निर्माण इस प्रकार होना चाहिए । दुसरा ईश्वर कहेगा-सष्टि का निर्माण इस प्रकार होना चाहिए | वैमनस्य, विवाद और विग्रह -ये तीनों स्थितियां बन सकती हैं । संभव है-महायुद्ध भी हो जाए, अणुअस्त्रों का प्रयोग भी हो जाए,वज्र जैसे संहारक अस्त्र का प्रयोग भी हो जाए । इस संभावना के आधार पर ईश्वरवाद के प्रवक्ता ने यह तर्क प्रमाणित किया- ईश्वर एक होना चाहिए । अनेक होने में मतभेद
और विवाद की संभावना है । यह तर्क बहुत शक्तिशाली तर्क नहीं है । अनेक इन्जीनियर मिलकर एक मॉडल बना लेते हैं, सहमति से काम कर लेते हैं। एक नहर के निर्माण में सैकड़ों इंजिनियर साथ मिलकर काम कर सकते हैं तो क्या दो-चार ईश्वर साथ मिलकर काम नहीं कर सकते ? यह एकत्व का तर्क बुद्धिगम्य नहीं होता । जैन दर्शन में ईश्वर एक नहीं, अनेक हैं । एक
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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