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अबाध्य सिद्धांत का प्रश्न बहुत महत्त्व का है | आचार्य बिनोबा ने लिखा- 'मैं बेभरोसे का आदमी हूं । आज एक बात कहता हूं और कल मुझे लगता है यह बात ठीक नहीं है, दूसरी बात ठीक है तो मैं उसको स्वीकर कर लूंगा । जो बात पहले स्वीकृत की गई है, उसे छोड़ दूंगा ।' यह नीति बहुत अच्छी है किन्तु इसमें अपूर्णता है, इस सचाई को भी हम स्वीकार करेंगे । अबाध्य सिद्धांत उसी का हो सकता है, जो पूर्ण बन गया । जब तक आदमी पूर्ण नहीं बनता, तब तक यह छोड़ने और स्वीकार करने की बात चलती रहेगी। कभी अच्छी बात आई, स्वीकार कर ली, कभी अच्छी नहीं लगी, छोड़ दी-यह क्रम कब तक चलेगा? नीति गलत नहीं है किन्तु साथ-साथ अपूर्णता का बोध भी हमें होना चाहिए | मैं अपूर्ण हूं इसलिए सब बातें जान नहीं सकता । एक को जाना और दूसरी उससे अच्छी लगी तो उसे भी स्वीकार कर लिया । मुझे वह भी नहीं बनना है कि लोहे की पोटली बांधली तो लोहे की पोटली को उठाए चलूंगा फिर चाहे चांदी या सोना आए, माणक या मोती आए | यह पकड़ भी मूर्खता की बात है । एक होता है लोहे वणिक जैसा, जो पकड़ लिया वह पकड़ लिया | दूसरा इस प्रकृति का होता है- मैंने पहले एक को स्वीकारा था, आज उससे अच्छा तत्त्व मिला है इसलिए उसे स्वीकार कर रहा हूं | यह समझदारी का चिंतन है । मूर्ख हो या समझदार–पूर्ण दोनों नहीं हैं । पूर्णता दोनों में नहीं हो सकती । पूर्ण वही होगा, जो वीतराग और सर्वज्ञ बन गया । उसका ज्ञान अबाध्य होता है, क्योंकि उसके सामने परोक्ष कुछ नहीं होता. सब कुछ हस्तामल कवत् प्रत्यक्ष होता है, हाथ में रखे आँवले की भांति स्पष्ट दिखाई देता है । न संशय, न विपर्यय और न अनध्यवसाय । ज्ञान अबाध्य और निरावरण बन जाता है ।
महानता की कसौटियां
कहा गया-अर्हत् की देवता भी सेवा करते हैं । यह कोई जरूरी नहीं है कि जिसमें इतनी विशेषताएं आ गई, उसकी देवता भी सेवा करते हैं । यह कोई कसौटी नहीं है । अनन्तविज्ञान, अतीतदोष, अबाध्य सिद्धांत- ये कसौटियां तो संगत प्रतीत होती हैं । देवता सेवा करे या न करे, अपेक्षा क्या है ? आचार्य सामंतभद्र ने लिखा -
णमो अरहंताणं
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