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णमो अरहंताणं
विकास का मूल स्रोत है - जिज्ञासा । एक छोटा बच्चा कोई नई वस्तु को देखता है तो अपनी मां से पूछता है - यह क्या है । वह उसे जानना चाहता है । अज्ञात को ज्ञात करना मनुष्य की सहज वृत्ति रही है । वह प्रत्येक चीज के बारे में जानना चाहता है | चाहे वह काम की हो या न हो, आवश्यक हो या अनावश्यक । इसीलिए कहा गया- ज्ञेय सब कुछ है। हेय और उपादेय की सीमा है । किंतु अज्ञेय कुछ भी नहीं है । हेय भी ज्ञेय है, उपादेय भी ज्ञेय है। मनुष्य इसी दिशा में चल रहा है। इसी का नाम है सत्य की खोज | यह जिज्ञासा या सत्य की खोज मनुष्य का जन्मसिद्ध अथवा मौलिक अधिकार है ।
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मैं कौन हूं
सत्य की खोज के संदर्भ में एक जिज्ञासा यह उभरती है - मैं कौन हूं ? बच्चा सबसे पहले दूध को जानता है । उसके बाद पानी और रोटी को जानता है, वस्त्र आदि बाह्य पदार्थों को जानता है । जो इन्द्रियों का विषय बनता है, उन सबको जानता चला जाता है । जब चिन्तन आगे बढ़ा, सोचने की शक्ति विकसित हुई, व्यक्ति की दृष्टि अपनी ओर गई । उसके मन में प्रश्न उठा- मैं कौन हूं ? सत्य की खोज का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है । 'कोऽहं ' - इसकी रट अनेक लोगों ने लगाई । अनेक साधकों ने इसे साधना का मुख्य विषय बनाया । इस प्रश्न का उत्तर कौन दे सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर कोई दूसरा नहीं दे सकता, स्वयं को खोजना होता है । व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर तभी दे पाता है, जब वह अर्हत् को जान ले । जो अर्हत् है,
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