________________
है । उस अवस्था में आत्मा स्वयं परमात्मा बन जाती है। इस योग की प्रक्रिया को हम देखते हैं तब उपासना का मूल्य स्वतः स्पष्ट हो जाता है ।
ज्ञान, भक्ति और कर्म
वस्तुतः उपासना के बिना तादात्म्य की स्थिति नहीं आती । ज्ञान ज्ञान के स्थान पर है । यथार्थ ज्ञान यथार्थ ज्ञान है । हम उससे जान लेते हैं पर बदलने बात उससे प्राप्त नहीं होती । बदलने के लिए उपासना का आलम्बन जरूरी है, भक्तिमार्ग आवश्यक है । भक्ति के बिना सन्बन्ध जुड़ता नहीं है, तादात्म्य सम्भव बनता नहीं है । जब दो चीजों को मिलाना है, तब उपासना करनी होती है | दूध को चीनी में मिलाना है, तो दोनों में उपासना होगी । दूध चीनी के साथ जाएगा या चीनी दूध के साथ जाएगी ।
जहां यह संबंध स्थापित नहीं होता, वहां दूध जैसा है, वैसा ही रह जाता है । ज्ञान का काम है - जो जैसा है, उसे वैसा जानना, यथार्थ का निरूपण करना । इसलिए जैन दर्शन में यह स्वीकार किया गया- कोरा ज्ञान अधूरा है | अनेकांत में कोई पूर्ण होता ही नहीं है । ज्ञान का सार है आचार । जब तक आचार नहीं होगा, ज्ञान का सार नहीं निकलेगा । कोरा दूध दूध है । जब तक दूध को बिलोया नहीं जाएगा, मथा नहीं जाएगा, तब तक नवनीत नहीं निकलेगा । जहां सार को प्राप्त करना है, वहां ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग- दोनों सम्मिलित हो जाते हैं ।
जैनधर्म में ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों का समन्वय है । ज्ञान, भक्ति और कर्म - तीनों जुड़े हुए हैं । यदि उपासना का महत्त्व नहीं होता तो श्रद्धा, भक्ति और सम्यक् -दर्शन को इतना महत्त्व नहीं दिया जाता । उसे मोक्ष के साधक तत्व के रूप में स्वीकृत किया गया है। प्रश्न हो सकता है - श्रमण और गुरु की उपासना का अर्थ क्या है ? कहा गया- श्रमण की उपासना सम की उपासना है, समानता की उपासना है, तपस्या की उपासना है । जो व्यक्ति समता, समानता और तपस्या की उपासना करता है, वह स्वयं समतामय, समानतामय, तपस्यामय बन जाता है। उसकी जीवन नौका कभी समुद्र के बीच में नहीं रहती, तट के उस पार पहुंच जाती है।
जैन धर्म के साधना - सूत्र
६४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org