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विधि परमात्मा बनने की
वस्तुतः यह बहुत महत्त्व की बात है । प्रश्न यह है- परमात्मा बनने की विधि क्या है ? उपासना की प्रक्रिया क्या है ? उपासना का मतलब है उपस्थिति का अनुभव करना । यह अनुभव करना कि परमात्मा मेरे सामने उपस्थित है । उसके सान्निध्य में बैठना, निकट बैठना या उसे अपने भीतर बिठा लेना । दूसरा तत्त्व है स्मृति । सतत स्मृति उपासना का ही दूसरा रूप है। केवल उसी की याद रहे और किसी की नहीं । तीसरा तत्त्व है- तादात्म्य । "वह मैं हूं और मैं वह है"-इस तादात्मय की अनुभूति हो जाए। ___स्मरण और तादात्य को स्थिति तब सम्भव बनती है जब जीवन में । एक मोड़ आता है । जब व्यक्ति के मन में यह तड़प जाग जाती है, एक असंतोष
और बेचैनी जागती है प्रभु से मिलने की, तब वह परमात्मा की सतत स्मृति में डूब जाता है । उसके मन की बेचैनी ही परमात्मा के साथ तदात्म होने की प्रेरणा बन जाती है । उसके मन में यह भावना उदग्र बनती है-वह मैं हूं , मैं वह है । इस स्थिति में उपास्य और उपासक के बीच तार जुड़ जाता है । उपासना करने वाले के मन में यह बैचेनी प्रबल बन जाती है-मेरा परमात्मा मुझसे कभी अलग न हो जाए | जब यह बेचैनी चरम बिन्दु पर पहुंचती है, उपास्य स्वयं उपासक बन जाता है, स्वयं तद्रप बन जाता है | वह स्वयं अपना नियंता बन जाता है । उपासना फलित और उपास्य कृतार्थ हो जाता है ।
ध्यान के दो प्रकार
ध्यान दो प्रकार के होते हैं-भेद प्रणिधान और अभेद प्रणिधान । जब व्यक्ति उपासना प्रारम्भ करता है तब वह भेद प्रणिधान की स्थिति में होता है। उस समय एक उपास्य होता है और एक उपासक । जैसे-जैसे उपासना बढ़ती है, तादात्म्य का विकास होता है, द्वैत समाप्त होता चला जाता है और एक क्षण ऐसा आता है कि अद्वैत घटित हो जाता है । उपास्य, उपासना और उपासक का भेद मिट जाता है । एक प्राचीन ग्रंथ में कहा गया-परमात्मा क्या है | जब परम के ध्यान में लीन भक्त परम की गहराई में चला जाता है, तब सारे विकल्प समाप्त हो जाते हैं । भेद का विकल्प भी शेष नहीं रहता
उपासना का महत्त्व
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