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भाषा एक : संदर्भ भिन्न
हित का उपदेश जीवन की व्यवस्था करता है । जीवन की व्यवस्था के दो कोण हैं- पहला कोण है अपने जीवन को भौतिक विकास की यात्रा में ले जाना, अच्छा जीवन जीना । दूसरा कोण है- जीवन की यात्रा निःश्रेयस् या मोक्ष की ओर चले, उसकी व्यवस्था करना । महर्षि रमण, जो इस शताब्दी के बहुत बड़े साधक हुए हैं, वे एक प्रश्न अपने से पूछते और हर आने वाले से भी पूछते - 'हू ऐम आई ? - मैं कौन हूं ?' यह प्रश्न पूछा गया मोक्ष के संदर्भ में, आत्मा की खोज के लिए । प्रत्येक आत्मार्थी व्यक्ति के सामने यह प्रश्न होता है कि मैं कौन हूं ? आज के वैज्ञानिक युग में जहां पर्सनल मैनेजमेंट या व्यक्तित्व व्यवस्थापन का प्रश्न आता है, वहां भी पहला प्रश्न यही पूछा. जाता है - मैं कौन हूं ? शब्दावली में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु संदर्भ दो बन गए। एक का संदर्भ है मोक्ष और दूसरे का संदर्भ है व्यक्तित्व निर्माण ।
एक प्रश्न आचारांगसूत्र में पूछा गया - 'मैं कहां से आया हूं ? पूर्व दिशा से आया हूं ? पश्चिम दिशा से आया हूं ? उत्तर अथवा दक्षिण दिशा से आया हूं ? मैं किस दिशा से आया हूं ? यही प्रश्न व्यक्तित्व व्यवस्थापन के संदर्भ में पूछा गया - 'व्हेयर आई केम फ्रॉम ? मैं कहां से आया हूं ?' भाषा एक ही है, किन्तु संदर्भ सर्वथा भिन्न है ।
ये प्रश्न एक प्रामाणिक पुस्तक में व्यक्तित्व निर्माण के संदर्भ में उपस्थित किये गये । अध्यात्म का प्रश्न है- मैं किस अवस्था में हूं ? प्रमत्त अवस्था में हूं या अप्रमत्त अवस्था में ? सराग अवस्था में हूं या वीतराग अवस्था में ? व्यक्तित्व व्यवस्थापन का तीसरा प्रश्न है- मेरी वर्तमान दशा क्या है ? पर्सनल मेनेजमेंट की पुस्तक को देख कर आश्चर्य हुआ। जो प्रश्न अध्यात्म के विकास की यात्रा करने वाले व्यक्ति ने रखे या पूछे, वे ही प्रश्न व्यक्तित्व व्यवस्थापन के संदर्भ में भी सामने आए । संदर्भ भिन्न होता है, शेष कोई अन्तर नहीं रहता ।
हमारे सामने दो संदर्भ हैं- एक लौकिक विकास का दूसरा लोकोत्तर विकास का । एक हित का दूसरा प्रिय का । प्रश्न है- हित का मार्ग क्या है ? हित का मार्ग आन्तरिक विकास का मार्ग है। इसमें बाहरी वस्तु पर
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हितोपदेश
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