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हितोपदेश
नीतिशास्त्र का एक विश्रुत ग्रंथ है 'हितोपदेश ।' वह विद्यार्थीयों को पढ़ाया जाता है । उससे उन्हें पथदर्शन मिलता है । जो स्वयं ज्ञानी बन गया, अतिशय ज्ञानी बन गया, कृतार्थ बन गया, फिर भी वह हित का उपदेश देता है । किसलिए देता है ? आचार्य कहते हैं- 'हित का उपदेश देने वाला स्वयं पर भी अनुग्रह करता है, दूसरों पर भी अनुग्रह करता है । इसलिए हितोपदेष्टा अपने श्रम की चिन्ता न करे, किन्तु श्रेय का प्रतिदपान करे
श्रममविचिन्त्यात्मगतं, तस्माच्छोयः सदोपदेशष्टव्यम् । आत्मानं च परं च, आत्मोपदेष्टानुगृह्णाति ।।
प्रिय और हित
प्रेय और श्रेय- ये दो मार्ग हैं । प्रेय सामाजिक मार्ग हैं । श्रेय मोक्ष का मार्ग है । प्रिय लगना या अच्छा लगना- यह लौकिक मार्ग है । जिस प्रवृत्ति से इन्द्रियों को तृप्ति मिलती है, वह श्रेय का मार्ग है । श्रेय के मार्ग में इन्द्रिय तृप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता । वहां केवल आत्मोदय का प्रश्न होता है । यह हित का मार्ग है । प्रिय और हित- ये दो तत्व हैं । एक कार्य प्रिय हो सकता है, किन्तु हितकर नहीं हो सकता । एक कार्य हितकर हो सकता है, किन्तु प्रीतिकर नहीं होता । प्रिय भी अहितकर हो सकता है और अप्रिय भी हितकर हो सकता है । ज्वर में मिठाई खाना प्रिय हो सकता है, हितकर नहीं । कड़वी दवा या नीम की पत्ती खाना प्रिय तो नहीं है किन्तु हितकर होता है । प्रिय और हित- दोनों अलग-अलग हैं ।
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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