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की आवश्यकता नहीं है । फिर भी जो उपदेश देता है धर्म का प्रवचन करता है, लोगों को संबोधि देता है, वह उत्तमोत्तम है ।
यस्तु कृतार्थोऽप्युत्तममवाप्य धर्म परेभ्म उपदिशति । नित्यं स उत्तमेभ्योप्युत्तम इति पूज्यतम एव ।।
पूज्य है उत्तमोत्तम
___ उत्तम व्यक्ति बड़ा है, पर पूज्य नहीं | पूज्य बनता है उत्तमोत्तम व्यक्ति । उसका अपना कोई प्रयोजन नहीं है । कुछ भी करना शेष नहीं है, केवल करुणार्द्रचेता है । एक करुणा की दृष्टि है- मैंने जिस सत्य का साक्षात्कार किया है, उस सत्य का साक्षात्कार दूसरे भी कर सकें, केवल यही प्रयोजन है । मैंने जो मोक्ष का अनुभव किया है, उसे दूसरे लोग भी कर सकें । हम यह न माने कि मरने के बाद ही मोक्ष होता है । वर्तमान जीवन में भी मोक्ष का अनुभव हो जाता है । जो वीतराग हो गया, उसे मोक्ष का अनुभव हो गया । जो वीतराग केवली बन गया, मोक्ष उसके सामने आ गया । वह चाहता है कि दूसरे लोग भी उस मोक्ष का अनुभव करें । इसलिए वह सत्य का प्रतिपादन करता है । जो जाना है, उसे दूसरों के सामने प्रस्तुत करना चाहता
प्रवृत्ते क्यों ?
___ अनेक विद्वानों ने इस संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित किया है- जब कोई व्यक्ति कृतार्थ हो गया, केवली बन गया तो वह कोई प्रवृत्ति क्यों करे, क्यों बोले? उसे तो निष्कर्म और प्रवृत्तिशून्य रहना चाहिए । प्रवृत्ति होती है प्रयोजन के साथ । बिना प्रयोजन कोई प्रवृत्ति नहीं होती | न्यायशास्त्र में कहा गया है- 'प्रयोजनमनुद्दिश्य न मंदोऽपि प्रवर्तते ।' प्रयोजन के बिना कोई मूर्ख आदमी भी प्रवृत्ति नहीं करता । जो बड़े ज्ञानी हैं, वे निष्प्रयोजन प्रवृत्ति क्यों करते हैं ? जब कृतार्थ हो गए, सारे प्रयोजन सिद्ध हो गए, फिर प्रवृत्ति क्यों ? इसका एक समाधान यह दिया गया है कि तीर्थंकर के तीर्थंकर नाम कर्म
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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