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केन्द्र में रख कर चिंतन करते हैं, तब उत्तम व्यक्ति वही होगा, जो बंधनमुक्त होना चाहता है।
अमरत्व की भावना
भृगु ने अपने पुत्रों से कहा- 'पुत्रो ! अभी तुम संसार में रहो, भोग करो, विवाह करो और जब बड़े हो जाओगे तो मैं भी तुम्हारे साथ बूढ़ा होकर दीक्षा लूंगा । अभी तुम दीक्षा की बात मत करो ।' उन्हें पिता की ये सारी बातें मान्य नहीं हुईं । इसका कारण स्पष्ट था- जब लक्ष्य मोक्ष है तो कोई भी लौकिक बात- भोग, पदार्थ, इन्द्रिय तृप्ति, धन- ये सब मूल्यहीन बन जाते हैं । ये सब एक तिनके की तरह क्षणभंगुर लगते हैं, इनमें कोई स्वाद प्रतीत नहीं होता । ध्रुव का भी यही प्रसंग है । वह बहुत छोटी अवस्था में विरक्त हो गया । नचिकेता को भी कितने प्रलोभन दिये गए । उसने कहामुझे आत्मा चाहिए और कुछ नहीं । मैं आत्मा को जानना चाहता हूं । उसका रहस्य जानना चाहता हूं, और मुझे कुछ नहीं चाहिए | जब मैत्रेयी के सामने यही प्रश्न आया तो उन्होंने कहा- 'मैं धन को लेकर क्या करूं? उस धन से मुझे क्या, जिससे मैं अमृत न बनूं | मुझे तो केवल अमृतत्व चाहिए । यह अमरत्व की भावना, अमर तत्व या मोक्ष की भावना जिसमें जग जाती है, वह व्यक्ति उत्तम बन जाता है । उसके लिए भौतिक चीजें छोटी पड़ जाती हैं । प्रत्येक व्यक्ति उस चीज को पाना चाहता है, जो बड़ी चीज है । जब मोक्ष जैसा परम अर्थ सामने आ जाता है तब दुनिया की सारी चीजें बहुत छोटी पड़ जाती हैं, उनका कोई आकर्षण नहीं रह जाता |
उत्तमोत्तम
. आचार्य उमास्वाति ने उत्तम से भी आगे एक और कोटि का निर्देश दिया है- उत्तमोत्तम । अर्थात् उत्तम में भी उत्तम | उत्तम में भी उत्तम कौन है ? इस प्रश्न को समाहित करते हुए उन्होंने कहा- जो कृतार्थ होकर भी धर्म का उपदेश देता है, वह व्यक्ति उत्तमोत्तम है । जो कृतार्ध बन गया, केवली बन गया, जिसके चार घाति कर्म क्षीण हो गए, अब कुछ भी करने
परमार्थ
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