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बने, जिसमें यह चिंतन प्रस्फुटित हो गया, वह वर्तमान जीवन को कभी नहीं बिगाड़ पाएगा। वर्तमान जीवन ही भावी जीवन का निर्माता है । यदि वर्तमान जीवन को बिगाड़ दिया तो भावी जीवन अच्छा नहीं बनेगा । इसलिए आचरण का एक नियामक तत्त्व बनता है परलोक-दर्शन | हमारा आचरण वर्तमान का होता है और निर्जरा भी वर्तमान काल में ही होती है । जितना भी धर्म है, सब वर्तमान क्षण में होता है | यह कभी नहीं होता कि मैं आज करूं और धर्म दस दिन में हो जाए । यह वर्तमान का अनुभव है और वर्तमान में होगा। किन्तु उसका लाभ और फल भविष्य में मिलेगा । इसलिए वर्तमान जीवन पर ध्यान केन्द्रित करें और भावी जीवन को उसका नियामक तत्त्व बनाएं। जिसमें यह दृष्टि जाग जाती है, वह उत्तम पुरुष है ।
विकास का सूत्र
आर्य कर्म कैसे हो, इस दृष्टि को जागृत करने के लिए अभ्यास की जरूरत है, प्रयत्न की जरूरत है । सीधी दृष्टि मिलती नहीं है । कोई-कोई जीव ऐसा होता है, जिसके कर्म बहुत घिस जाते हैं । जैसे पत्थर ठोकर खातेखाते घिस जाता है, या नदी में प्रवाहित होते-होते चिकना बन जाता है । वैसा कोई होता है तो अपने आप निसर्ग से वह चेतना जाग जाती है । किन्तु सबमें ऐसा नहीं होता । ऐसा अभ्यास और प्रयल से ही संभव है । अभ्यास करने का सूत्र हाथ में आ जाए तो चंचलता भी कम होनी शुरू हो जाएगी। जो व्यक्ति अभ्यास को परिपक्व करेगा, बढाएगा, निश्चित है, उसकी चंचलता कम हो जाएगी। अभ्यास को नहीं बढ़ाएगा तो चंचलता कम नहीं होगी।
अभ्यास सार्थक बने ।
विकास का सूत्र है अभ्यास । सम्यक् दर्शन भी दो प्रकार का होता हैतन्निसर्गात् अधिगमात् वा । किसी को निसर्ग से मिल जाता है, किन्तु अधिकांश लोगों को अधिगम से मिलता है, अभ्यास से मिलता है | आचरण भी दो प्रकार का होता है- अभ्यासजन्य और निसर्गज । जैसे-जैसे हमारा
आर्य कर्म
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