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अभ्यास बढता है, वैसे-वैसे दृष्टि भी साफ होती जाती है, दोष भी मंद होता जाता है, हमारा चिंतन उभयलोकव्यापी होता जाता है | वर्तमान जीवन को अच्छा करना और भावी जीवन को भी अच्छा करना- यह है आर्य कर्म । इस आर्य कर्म की प्रेरणा जागे और हर व्यक्ति यह प्रयत्न करे कि मुझे अधमतम चिंतन में नहीं जाना है, अधम कोटि के चितन में भी नहीं जाना है, विमध्यम और मध्यम कोटि के चिंतन में भी नहीं जाना है, उत्तम पुरुष बनना है । इतना लक्ष्य बन जाए तो साधना की बहुत बड़ी सफलता और अभ्यास की बहुत बड़ी सार्थकता है ।
जैन धर्म के साधना सूत्र
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