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इतना ज्यादा परिवर्तन होता है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । हमारे कार्य का कारण या कसौटी है दोष तत्त्व ।
भगवान् महावीर ने हिंसा को अनार्य कर्म कहा । हिंसा के प्रवचन करने वाले वचन को भी अनार्य वचन कहा । अनार्य कर्म की परिभाषा की जा सकती है- कषाय की तीव्रता जिस आचरण के साथ है, वह अनार्य कर्म है । जिस आचरण के साथ कषाय की तीव्रता नहीं है, कषाय की मंदता है वह है आर्य कर्म । आर्य और अनार्य का संबंध जाति के साथ भी रहा है । जाति को भी बांटा गया है- आर्य जाति और अनार्य जाति । किन्तु यहां गुणों के साथ बांटा गया, किसी जाति के साथ संबंध नहीं है । एक कसौटी बन गई- कषाय की मंदता में जो आचण होता है, वह प्रवृत्ति है आर्य कर्म
और कषाय की प्रबलता में जो कर्म होता है, वह अनार्य कर्म है । उत्तम पुरुष वह होता है, जो आर्य कर्म करता है, अनार्य कर्म नहीं । जो व्यक्ति वर्तमान जीवन को भी अच्छा बनाता है और भावी जीवन को भी अच्छा बनाता है, वह उत्तम पुरुष है।
नियामक है परलोक-दर्शन
बहुत महत्त्वपूर्ण है दोनों लोकों की दृष्टि से सोचना | केवल वर्तमान जीवन अच्छा बने, इस पर ही सोचना पर्याप्त नहीं है । यह ठीक है कि वर्तमान जीवन अच्छा होगा तो भावी जीवन अपने आप अच्छा हो जाएगा । किन्तु वर्तमान जीवन अच्छा कब बन सकता है ? वह तब बनता है जब भावी जीवन का दर्शन सामने हो । एक पायलट वायुयान को उड़ा रहा है, ड्राइवर बस या कार को चला रहा है, एक कुशल नाविक नौका को खे रहा है, वह अच्छा तब कहलाएगा, जब उसके सामने यह दर्शन रहे- कुशल-क्षेम के साथ मंजिल पर पहुंच जाना और अपने यात्रियों को भी सकुशल गंतव्य तक पहुंचा देना । यह स्थिति सामने है तो वह कुशलता से अपने वाहन को चलाएगा। यदि लापरवाह है तो शराब के नशे में चलाएगा, नींद के झोंके में चलाएगा, स्वयं मरेगा और साथ के सभी लोगों को भी मारेगा । हमारे सामने एक लक्ष्य है। उसकी एक नियामकता है परलोक का दर्शन । भावी जीवन की चिन्ता • एक नियामकता है । मेरा अगला जीवन बिगड़े नहीं, भावी जीवन अच्छा
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__ जैन धर्म के साधना-सूत्र
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