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रहते हैं । जीवन अधिक उलझन पूर्ण बन जाता है ।'
आदमी तनाव को मिटाना चाहता है, किन्तु तनाव आता कहां से है ? तनाव आता है असद् कार्यों से | जितनी-जितनी इन्द्रियों की लोलुपता बढती है, उतना-उतना तनाव भी बढ़ता है । यदि इन्द्रिय चेतना का संयम हो जाए तो तनाव का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा ।
ऐसा क्यों होता है ?
उत्तम पुरुष आर्यकर्म करता है, निरवद्य और निर्दोष कर्म करता है । कषाय हमारे दोष हैं । शरीर के तीन दोष माने गए हैं- वात, पित्त और कफ । गीता अथवा वैदिक साहित्य में मन के तीन गुण या दोष माने गए हैं- सत्त्व, रजस् और तमस् । हम जैन दृष्टि से विचार करें तो दोष हैं कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ । इन दोषों का स्वभाव है आरम्भ में प्रवृत्त करना । बहुत लोग कहते हैं- मैं यह काम करना नहीं चाहता, पर पता नहीं कैसे हो जाता है । करना नहीं चाहता, पर हो जाता है, यह द्वन्द्व क्यों ? आदमी करना चाहे और हो जाए तो ठीक बात है । भोजन करना चाहा और भोजन हो गया, यह बात तो ठीक है, पर भोजन करना नहीं चाहता था, फिर भी भोजन कर लिया, यह विरोधाभास है । दूसरे की वस्तु को उठाना नहीं चाहता था, पर उठा लिया, यह क्यों होता है ? यह आरम्भ में प्रवृत्ति क्यों होती है ? हिंसा करना नहीं चाहता था, पर हो गई । झूठ बोलना, चोरी करना तो नहीं चाहता था, पर हो गई, ऐसा क्यों होता है ?
कार्य की कसौटी
कषाय आरम्भ में प्रवृत्ति कराते हैं, हिंसा, झूठ, चोरी आदि में आदमी को प्रवृत्त करते हैं, अशुभ अनुष्ठान में आदमी को ले जाते हैं । केन्द्रीय तत्त्व है दोष । अनार्यकर्म का सबसे बड़ा प्रेरक तत्त्व है दोष, कषाय । आर्य कर्म का प्रेरक तत्त्व है कषाय की मंदता | जिसका कषाय शान्त है, उसकी इन्द्रियां उपशान्त होगी । उसके सामने कितनी ही बढिया चीज रखो, हाथ नहीं उठाएगा । यदि कषाय प्रबल है तो हाथ ही क्या, सारा शरीर उठ जायेगा।
आर्य कर्म
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