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आकाश की ओर मुंह करके बोली- हे परमात्मा ! तुम सबको देख रहे हो और मैं तुम्हारी साक्षी से यह दूध पी रही हूं।
यह क्यों होता है ? जहां इन्द्रिय चेतना प्रबल बनती है, इन्द्रियों की लोलुपता बढती है, वहां छलना, प्रवंचना, माया- ये सब बढ़ जाते हैं । बिल्ली में ही नहीं, आदमी में भी बढ़ जाते हैं, हर प्राणी में बढ़ जाते हैं | अधम पुरुष केवल वर्तमान जीवन तक अपनी चेतना को सीमित कर देता है । उसमें इन्द्रिय आसक्ति बढ़ जाती है । इन्द्रिय की आसक्ति को कम करने का सूत्र है- परलोक-दर्शन । भविष्य के जन्म का दर्शन स्पष्ट हो जाए तो इन्द्रिय की लोलुपता पर नियंत्रण होता है । सामने एक प्रश्न आता है- परलोक में क्या होगा ? दूसरे जन्म में क्या होगा ? अगला जन्म कैसा होगा ? किस गति का मिलेगा ? जहां यह सारा चितन ही नहीं है, वहां इन्द्रिय संयम की कोई आवश्यकता ही महसूस नहीं होती । उस पर कोई नियंत्रण नहीं होता । इन्द्रिय की प्रेरणा से होने वाला यह कर्म अधम कोटि का कर्म होता है ।
विमध्यम
विमध्यम व्यक्ति वह है, जो अहित नहीं करना चाहता | वह इहलोक का भी काम करना चाहता है और परलोक के लिए भी कुछ करना चाहता है । दोनों ओर से वह फल की आकांक्षा करता है, अहित की आशा नहीं करता । इहलोक में चाहता है कि मैं ऐसा व्यापार करूं, उद्योग करूं, जिससे मुझे लाभ मिले और जीवन सुखी बने । परलोक के लिए भी वह सोचता है कि मुझे ऐसा कुछ करना चाहिए । इतना दान कर दूं तो परलोक सुधर जाएगा । अमुक अनुष्ठान करूं तो परलोक सुधर जायेगा । दोनों लोकों की चिन्ता वह करता है । किन्तु उसके सम्यक् दर्शन नहीं है, इसलिए कुशलानुबंध नहीं करता । किसी ने कहा- बलि चढा दो, तुम्हें स्वर्ग मिल जाएगा, यज्ञ करा दो, स्वर्ग मिल जाएगा, तो हिंसा में भी प्रवृत्त हो जाएगा, अकुशल कार्य में भी प्रवृत्त हो जाएगा | कभी-कभी लोग ऐसे ही उद्देश्य के लिए मनुष्य की बलि भी चढा देते हैं । वह अकुशलानुबंध करता है किन्तु दोनों दृष्टियों से सोचता जरूर है । ऐसे व्यक्ति को विमध्यम कोटि का व्यक्ति माना गया है ।
जैन धर्म के साधना सूत्र
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