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हैं, क्योंकि उनका जीवन केवल वर्तमान जीवन तक सीमित हो जाता है । वे भविष्य को बिलकुल नकार देते हैं । इसका एक हेतु इन्द्रियों की चंचलता. है, आसक्ति या लोलुपता है । इन्द्रियां तृप्त होना चाहती हैं, किन्तु तृप्त कभी नहीं होतीं । तृप्त होना इन्द्रिय का स्वभाव ही नहीं है । जैसे-जैसे तृप्ति का प्रयत्न होता है, वैसे-वैसे अतृप्ति और बढ़ती जाती है । तृप्ति की चाह बराबर बनी रहती है । उस अतृप्ति की चाह से ही कुछ इस प्रकार के सिद्धान्त बन जाते हैं, प्रवंचनाएं खड़ी हो जाती हैं । जीवन में बहुत सारी प्रवंचनाएं इस इन्द्रिय लोलुपता के कारण ही होती हैं ।
साक्षी परमात्मा की ___एक व्यक्ति ने बिल्ली पाली । उस बिल्ली से उसे बहुत प्यार था । कुछ दिन तक तो बिल्ली ठीक रही । किन्तु आखिर आदत कहां जाएं ? जब भी मौका मिलता, दूध-दही चट कर जाती । घर वालों के लिए समस्या हो गई । दूध-दही मिलना मुश्किल हो गया । सोचा- क्या करें ? अत्यधिक लगाव के कारण उसे घर से निकाल भी नहीं सकते थे । एक दिन उनके नगर में साधु आए । सबने सोचा- भाग्य से संन्यासी पधारे हैं, चलो दर्शन करें, प्रवचन सुनें । संन्यासी ने अपने प्रवचन में कहा- 'चोरी करना बहुत बड़ा पाप है । छल करना, लुक-छिप कर कुछ खा जाना, किसी की चीज उठा लेना अपराध
प्रवचन से सब बहुत प्रभावित हुए । बिल्ली ने भी सुना । उसका मन भी कुछ बदला । उसने भी संकल्प कर लिया- अब दूध-दही खाऊंगी तो छिप कर नहीं खाऊंगी, सबके सामने दूध की कटोरी साफ करूंगी । दूसरे दिन लोग किसी काम में लगे हुए थे । दूध सामने पड़ा था, किन्तु संकल्प था कि छिप कर नहीं, सबके सामने पीऊंगी । भूख से उसका बुरा हाल था। अब एक ओर इन्द्रिय लोलुपता का दबाव, दूसरी ओर कृत संकल्प का अवरोध । दोनों के बीच अन्तर्द्वन्द्व छिड़ गया । आखिर इन्द्रिय चेतना बलवान् हो गई । बिल्ली दूध के पास चली गई । दूध पीने की तैयारी की । मन में फिर विकल्प जगा- संकल्प को तोडूं या न तोडूं । इतने में एक उपाय सूझा |
आर्य कर्म
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