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आर्य कर्म
उत्तराध्ययन सूत्र का प्रसंग है- चित्र और ब्रह्म- दोनों भाई मिले । ब्रह्म चक्रवर्ती राजा था और चित्र मुनि थे । ब्रह्म ने प्रयत्न किया, मुनि मेरे साथ आ जाए और राज्य का उपभोग करे । चित्र ने प्रयत्न किया- ब्रह्म मेरे साथ आ जाए और संयम का जीवन जीए । संयमशील बने । दोनों ओर काफी तर्क-विर्तक चले । आखिर दोनों में से कोई भी सफल नहीं बना | न ब्रह्मदत्त चित्र को अपनी ओर खींच सके और न चित्र ब्रह्मदत्त को अपनी ओर आकर्षित कर सके । कोई सफल नहीं हुआ । ब्रह्मदत्त ने साफ-साफ कहा- मुनिवर ! आप जो कहते हैं, वह सही है, किन्तु मैं राज्य को, भोगों को अभी नहीं छोड़ सकता ।
चित्र ने कहा- राजन्, तुम यदि भोगों को छोड़ने में असमर्थ हो तो कम से कम आर्य कर्म तो करना, अनार्य कर्म कभी मत करना ।
परमार्थ की दिशा
प्रश्न है- आर्यकर्म क्या है और अनार्यकर्म क्या है ? आचार्य उमास्वाति ने प्रयत्न की चर्चा करते हुए कर्म की काफी चर्चा की है । उन्होंने बतायाजिस कर्म से, जिस प्रवृत्ति से कर्मबंध और क्लेश- ये दोनों क्षीण हों, वैसा कर्म करना चाहिए । कर्म का निषेध प्रवृत्ति का निषेध नहीं है । वह प्रवृत्ति, जिसके सामने कर्मक्षय का लक्ष्य रहे, परमार्थ है ।) प्रश्न उठेगा- किसी व्यक्ति को यह परमार्थ न मिले, तब क्या करना चाहिए ? परमार्थ की दृष्टि जाग जाए, यह बहुत कठिन बात है । सब व्यक्तियों में यह संभव नहीं है किन्तु जब परमार्थ की दृष्टि नहीं जागती है, तब भी मनुष्य कर्म करता है । वह
जैन धर्म के साधना-सूत्र
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