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क्लेश और कर्म को क्षय करने का एक शक्तिशाली साधन है ध्यान । हम इस सचाई को समझ कर ध्यान करें कि मैं क्यों कर रहा हूं, क्या कर रहा हूं । बाहर से निवृत्ति और भीतर से प्रवृत्ति- यही ध्यान है । कबीर ने कहा- 'बाहर से तो कछु य न दीखै, भीतर जल रही जोत ।' आचार्य भिक्षु ने कहा- 'तपसी रो शरीर लूखो हुवै ।' तपस्वी और ध्यानी का शरीर बाहर से रूखा-सूखा रहता है, पर भीतर में एक तेज झलकता है । हम भीतर प्रवृत्ति करना और भीतर के तेज को देखना सीखें, हमारे कर्म और क्लेश मंद होते चले जाएंगे और एक दिन आएगा- प्रयत्न का विवेक अप्रयत्न का स्रोत बन जायेगा ।
प्रयल का विवेक
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