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तब आत्मा का प्रयत्न प्रकट होता है । बहुत लोग कहते हैं- निवृत्तिवाद का अर्थ है निकम्मा हो जाओ, निठल्ला हो जाओ । वस्तुतः उन्होंने निवृत्ति का रहस्य ही नहीं समझा । जब बाहर की प्रवृत्तियां बन्द होती हैं, तब भीतर की प्रवृत्ति इतनी प्रबलतम होती है कि उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । यह प्रवृत्ति निवृत्ति सापेक्ष है । बाहर की प्रवृत्ति, भीतर की निवृत्ति । बाहर की निवृत्ति, अंतरात्मा की प्रवृत्ति । हमारी आत्मा की प्रवृत्ति ध्यान में होती है । ध्यान निठल्ला बैठना नहीं है । आत्मा की प्रवृत्ति करना है।
श्री जेठाभाई झवेरी ध्यान के अच्छे साधक थे । एक दिन मैंने उनसे पूछा- 'आप बहुत पढ़ते हैं, पर प्रेक्षाध्यान का अभ्यास क्यों नहीं करते ? प्रेक्षाध्यान के शिविर में क्यों नहीं आते ?' उन्होंने कहा-'महाराज ! मैं पढ़ता हूं, घण्टा भर लिखता हूं तो कोई काम करता हूं । घण्टा भर आंख मूंद कर बैठ जाऊंगा तो उससे क्या लाभ होगा?' मुझे आश्चर्य हुआ कि इतना विद्वान् आदमी, जो विज्ञान को जानता है, दर्शन को जानता है और वह ऐसी बात कहता है । न मेरी बात उनकी समझ में आई और न उनकी बात मेरी समझ में आई । एक बार उनके पुत्र अरुण ने शिविर में भाग लिया। उसके स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आया । जेठाभाई को लगा कि वे भ्रान्ति में हैं । ध्यान तो बड़े काम की चीज है । वे शिविर में ही नहीं आए, प्रेक्षाध्यान के प्रशिक्षक और प्रवक्ता भी बन गए ।
यही परमार्थ है
__ जब यह बात समझ में आती है कि ध्यान निर्जरा का इतना शक्तिशाली साधन है और वह निर्जरा अगले जीवन में काम नहीं आएगी, वर्तमान जीवन में बदलाव लाएगी, तब ध्यान का महत्व आंका जाता है । आचार्य ने बहुत मार्मिक दर्शन दिया- 'ऐसा प्रयत्न करो, जिससे कर्म और क्लेश का क्षय हो, यही परमार्थ है।
जन्मनि कर्मक्लेशः अनुबद्वेस्मिन् तथा प्रयतितव्यं । कर्मक्लेशाभावो यथा भवत्येष परमार्थः ॥
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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