________________
प्रयत्न की सही दिशा
कोई भी वीतराग नहीं है । एक गृहस्थ की बात छोड़ दें, एक साधु भी वीतराग सहज में ही नहीं बनता है। वह उस दिशा में प्रयत्न करता है, जिससे कषाय प्रतनु बने । कर्म और कषाय दोनों को प्रतनु करना है । इसी चिंतन के आधार पर आचारशास्त्रीय अवधारणाएं बनती हैं। मनुष्य का आचार वैसा होना चाहिए, जिससे कर्म का बंध प्रगाढ न बने। हम जो भी आचरण करें, उसमें यह विवेक रखें कि बन्धन गाढ़ न हों, कषाय प्रगाढ़ न बने, तीव्र न बने । यह सचाई समझ में आ जाए तो हमारा प्रयत्न सही दिशा में होने लग जायेगा । जब तक यह विवेक जागृत नहीं होता है, तब तक प्रबलतम मूर्च्छा और आसक्ति का यह क्रम निरंतर चलता रहेगा । उसके आधार पर ही अनावश्यक हिंसा, अनावश्यक संग्रह की वृत्ति पनपती है । संग्रह और हिंसा पर कहीं विराम नहीं लगता, कहीं उनका अन्त नहीं होता । अनावश्यकताओं का परिसीमन होता है सचाइयों को जान लेने पर । व्यक्ति सोचता है मुझे कर्म का क्षय करना है, क्लेश का क्षय करना है, किन्तु वह कब होगा ? पहले दिन क्षय नहीं होगा । पहली बार में क्षय नहीं होगा । पहली प्रक्रिया है कषाय को मंद करना, कमजोर बना देना । यह स्थिति समझ में आती है तो ध्यान का मर्म भी समझ में आता है ।
ध्यान और तपस्या
कर्म को प्रतनु करने का शक्तिशाली माध्यम है ध्यान । तपस्या के अनेक प्रकार हैं, किन्तु सबसे शक्तिशाली माध्यम है ध्यान । मानक या मानदण्ड की भाषा में कहा जाता है कि ढाई मिनट का ध्यान और बेले की तपस्या ' यानी दो दिन का उपवास बराबर है । जो निर्जरा दो दिन के उपवास में होती है, वह निर्जरा ढाई मिनट के ध्यान में हो जाती है । इतना शक्तिशाली साधन है ध्यान | इससे भी आगे जब ध्यान की विशुद्ध श्रेणी बढती है, शुक्ल ध्यान की स्थिति आती है, तो महान् निर्जरा घटित होती है। आचार्य ने प्रशमरति प्रकरण में लिखा है- 'एक मुनि शुक्लध्यान की उत्कृष्ट साधना में है | उस स्थिति में उसमें इतनी क्षमता है कि वह दुनिया के अनंत अनंत जीवों के कर्म
२२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
जैन धर्म के साधना सूत्र
www.jainelibrary.org