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हुआ, जैसे कोई खंभा खड़ा हो । ऐसा लगता था कि जैसे उसमें न कोई चेतना है, न विवेक । बस अकड़ कर खड़ा हो गया । उससे पूछा गया- कहां से आए हो? वह बोलना चाहता था, पर बोल नहीं पा रहा था । परिवार वालों ने कहा- 'महाराज! यह इतना ज्यादा पानपराग खाता है कि दिन में दसों पैकेट समाप्त कर देता है | उसकी आकृति ही बता रही थी कि यह कोई नशेड़ी आदमी है । नशे के प्रयोग से उसकी विवेक चेतना जैसे लुप्त हो गई थी । उससे पूछा गया- 'क्या नशा छोड़ोगे ?' वह बोला- 'नहीं, मैं नहीं छोड़ सकता।'
पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'ऐसा लगता है, जैसे इसे जीने का मोह ही समाप्त हो गया है । जिसे जीने का मोह है, वह ऐसा नहीं कह सकता कि मैं नहीं छोडूंगा । परिवार के लोगों ने बताया कि इसकी इसी लत के कारण इसे बारबार अस्पताल में भर्ती करना पडता है । सभी इससे परेशान हैं ।
किससे मिला है जीवन ?
इसका कारण है- मोहनीय कर्म का प्रबल विपाक हो रहा है | हम कर्म के प्रति बहुत कम जागरूक हैं । हमने यह मान लिया कि जीवन सहज में मिल गया है और चल रहा है । किन्तु जीवन किससे मिला है, इस बात पर हमारा ध्यान नहीं जाता । हम इस सचाई की ओर ध्यान नहीं देते कि जीवन अच्छा मिला है तो कर्म के कारण मिला है । आगे भी जिस गति में मिलेगा, कर्म से मिलेगा, कर्म से प्राप्त होगा । जीवन का जो मूल चिंतन है, उसे हम भुला देते हैं । हमारा प्रयत्ल इस दिशा में नहीं होता कि कर्म को मंद कैसे करना चाहिए । जाने-अनजाने जो कुछ भी होता है, उससे कर्म और अधिक तीव्र होता चला जाता है । कर्म गति को भी निम्न बना देता है |
प्रत्येक मनुष्य के मन में यह चिंतन होना चाहिए कि मैंने जो विकास किया है, जिस भूमिका का आरोहण कर लिया है, कम से कम उससे नीचे तो मैं न जाऊं । ऊपर जाऊं, यह अच्छी बात है, पर कम-से-कम उससे नीचे तो न जाऊं, अधोगति तो न हो । यह चिंतन हमारे प्रयत्न के लिए अपेक्षित है | हमारा प्रयत्न किस दिशा में होगा, इसका एक आधार बन जाता है कि
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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