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मंत्र विद्या का प्रभाव
तुगलकशाह ने जिनदत्तसूरि से कहा- 'महाराज ! आप मंत्रसिद्ध हैं, विद्यासिद्ध हैं । यह बरगद का पेड़ बहुत अच्छा है। क्या आप ऐसा कर सकते हैं कि मैं जहां जाऊं, यह पेड़ मेरे साथ-साथ चले, जिससे कि मैं इसकी छाया में रहूं ।' आचार्य ने कहा- 'यह हो सकता है ।' बादशाह ने यात्रा शुरू की। साथ में बरगद भी चलने लगा । यह सुनकर आश्चर्य हो सकता है कि क्या ऐसा संभव है ? किन्तु मंत्रविद्या के सामने असंभव नहीं है। वह वृक्ष बादशाह के साथ काफी दूर तक गया । बादशाह ने कहा- 'महाराज ! अब इसे आप मूल स्थान पर पहुंचा दें।' आचार्य ने वापस प्रयोग किया और वह वृक्ष अपने मूल स्थान पर जाकर पुनः आरोपित हो गया । क्या अब वृक्ष चलने में स्वतंत्र है ? कोई भी वृक्ष चलता नहीं है। अभी तक तो देखा नहीं गया । ट्रेन में सफर करते समय भ्रम-सा हो सकता है कि हमारे साथ, ट्रेन के साथ पेड़ भी दौड़े जा रहे हैं । किन्तु यह आभास, विपर्यय या भ्रम मात्र है । वास्तविकता यह है कि वृक्ष कभी चलता नहीं है। आचार्य की मंत्रविद्या से वृक्ष प्रभावित हो गया और चलने लग गया ।
स्वतंत्र है वीतराग
वस्तुतः स्वतंत्र चेतना वीतराग की होती है। अवीतराग की चेतना स्वतंत्र बने, यह बहुत कठिन बात है । जब तक कषाय का उदय है, कषाय का विपाक है, तब तक स्वतंत्रता की बात सापेक्ष है । व्यक्ति एक अपेक्षा से यह कह सकता है- मैं स्वतंत्र चिंतन करता हूं, किन्तु वास्तव में वह बंधा हुआ है । कोई व्यक्ति पेड़ से बंधा हुआ है, कोई कार से बंध हुआ है । कोई परिस्थिति से बंधा हुआ है, कोई किसी व्यक्ति से बंधा हुआ है तो कोई धन से बंधा हुआ है। चिंतन के पीछे ये सारे समवाय अपना काम करते हैं, इसलिए स्वतंत्रता की बात वहां नहीं हो सकती । जब सम्यक् दर्शन आता है, तब स्वतंत्रता की पहली किरण फूटती है। कषाय को मंद किया और दृष्टिकोण परिष्कृत हुआ, स्वतंत्रता प्रस्फुटित हो गई। इसलिए जन्म को सफल करने का पहला सूत्र बनता है सम्यक् दर्शन । जीवन में प्रकाश की रश्मि प्रस्फुटित
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जैन धर्म के साधना सूत्र
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