________________
ये दुःख और समस्याएं केवल आनुवंशिकता या परिस्थिति के साथ जुड़ी हुई नहीं हैं, इसलिए आचार का निर्धारण करते समय मनुष्य के आचरण पर भी ध्यान देना होगा । किस प्रकार का आचरण किस प्रकार की समस्या पैदा करता है और किस प्रकार का भंडार भरता है, यह जानना भी आचार - निर्धारण के लिए अपेक्षित होता है ।
ज्ञान मीमांसा : कर्म-मीमांसा
एक है स्मृति का भंडार । व्यक्ति ने जो देखा, जैसा उत्प्रेषण हुआ, जैसी धारण बनी वैसी भावना हो आई । यह है - ज्ञान मीमांसा का क्षेत्र । इसका संबंध ज्ञान-मीमांसा से है । आचरण का संबंध कर्म - मीमांसा से है । दोनों की मीमांसा अलग-अलग है, दोनों में विरोधाभास है । स्मृति होना भी एक परिणाम है किन्तु इसका संबंध केवल हमारी ज्ञान की प्रक्रिया से है । हमने जैसी धारण की, वैसी स्मृति हो आई । ठीक ऐसा ही क्रम कर्म के संबंध में होता है । हमने जैसा आचरण किया, वही आचरण हमारे भीतर चला गया, रूढ़ हो गया, भंडार में जमा हो गया । उसे कोई उद्दीपन मिला, निमित्त मिला, काल का परिपाक आया, वह प्रगट हो गया ।
1
बंध के हेतुओं का ज्ञान एक धार्मिक के लिए बहुत जरूरी है । इस ज्ञान के द्वारा मनोविज्ञान की बहुत सारी पहेलियों को सुलझाया जा सकता है । इससे जीवन के प्रति जागरूक होने का अवसर मिलता है । जब व्यक्ति को इस बात का बोध होगा - मेरे प्रत्येक आचरण का परिणाम भी मुझे भुगतना है, तब वह प्रत्येक कर्म के प्रति जागरूक बनेगा |
जागरूकता के सूत्र
जीवन में जागरूकता आए, व्यक्ति अपने प्रत्येक आचरण के प्रति जागरूक बने तो वह अकरणीय कार्यों से बच सकता है । प्रत्येक व्यक्ति भोजन करता है। वह सोचे- मैं जो खा रहा हूं, उसका परिणाम क्या होगा ? परिणाम को दो दृष्टियों से देखा जा सकता है । यदि ज्यादा खाया है तो अजीर्ण होगा, पाचन नहीं होगा, बड़ी परेशानी हो जाएगी, यह अल्पकालिक परिणाम है ।
जैन धर्म के साधना - सूत्र
२१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org