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शब्दावली में कहा गया- कायवाङ्मनः व्यापारी योगः- काया, वाणी और मन का जो व्यापार है, जो प्रवृत्ति है, उसका नाम है- योग ।
महर्षि पतंजलि ने भी योग शब्द का प्रयोग किया है। जैन दर्शन में भी वह प्रयुक्त हुआ है । इसके अर्थ में सादृश्यता भी है, असादृश्यता भी है। योग का एक अर्थ है - जुड़ना और जोड़ना । योग का दूसरा अर्थ है - समाधि या एकाग्रता ।
प्रश्न है - हमारा संबंध कैसे बना हुआ है ? हम कैसे जुड़े हुए हैं ? काया, वाणी और मन-इन तीनों की प्रवृत्ति चल रही है । ये तीनों पुद्गलों को बाहर से खींचते हैं और जीव को पुद्गलों के साथ जोड़ते हैं। योग आश्रव है। दीपक जल रहा है, बाती निरन्तर तैल को खींच रही है । हमारी प्राणधारा भी पुद्गलों के आधार पर निरन्तर चलती जा रही है। इसी आधार पर पुद्गलों की वर्गणाएं बना दी गई । वर्गणाएं आठ हैं - पांच शरीर की, एक भाषा की, एक मन की और एक श्वासोच्छ्वास की ।
वह
जीव और पुद्गल के संबंध को टिकाने वाला बिन्दु हमें ज्ञात है, है आश्रव योग-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति ।
प्रश्न दुःख की रचना का
एक प्रश्न है - दुःख कहां से आ रहा है ? जीव का लक्षण है- उपयोग, ज्ञान और चेतना । जीव चैतन्यमय है। चैतन्य का स्वभाव दुःख नहीं है । उसका स्वभाव है-शक्ति, दर्शन और आनंद | जब आनंद चैतन्य का स्वभाव है तब दुःख कहां से आया ? एक समाधान दिया गया- ईश्वर ने दुःख बना दिया ताकि व्यक्ति प्रमाद न करे, भूलें न करे किन्तु जब तक हम दुःख और अशुभ की जैविकीय स्तर पर चर्चा नहीं करेंगे तब तक दुःख की बात समझ में नहीं आएगी । दुःख की रचना न ईश्वर ने की है और न ही जागरूक रहने के लिए दुःख की रचना की गई है । दुःख की रचना संबंध के साथ जुड़ी हुई है। जीव और पुद्गल के संबंध की परिणति है - सुख और दुःख । योग के द्वारा जो लिया जा रहा है, वह अच्छा भी है, बुरा भी है, है, शुभ भी है, अशुभ भी है । सुख और दुःख, पुण्य और पाप- दोनों हमारी प्रवृत्ति के
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जैन धर्म के साधना - सूत्र
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