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द्वारा आ रहे हैं । जैसी हमारी प्रकृति होती है, वैसा ही उसका परिणाम आता है। हमारी प्रवृत्ति शुभ होती है तो आश्रव पुण्य का होता है और हमारी प्रवृत्ति अशुभ होती है तो आश्रव पाप का होता है ।
क्या आत्मा शुद्ध है?
प्रश्न हो सकता है-जब ज्ञाता-आत्मा चैतन्यमय है तो वह अशुभ की सृष्टि क्यों करेगा ? जो प्रश्न ईश्वर के संदर्भ में उपस्थित होता है, वही प्रश्न आत्मा के संदर्भ में प्रस्तुत हो जाता है | हम मुड़कर देखें | आत्मा शुद्ध है, यह हमारी कल्पना है | वस्तुतः वह शुद्ध नहीं है । जब तक आत्मा शरीर के साथ जुड़ी हुई है तब तक उसे शुद्ध कैसे माना जाए ? जब तक आत्मा राग-द्वेष की प्रवृत्ति के साथ जुड़ी हुई है तब तक वह शुद्ध कैसे हो सकती है ? शुद्ध आत्मा की बात मुक्त अवस्था में की जा सकती है | जहां पुद्गल से कुछ भी लेना-देना नहीं है, वहां शुद्ध आत्मा का प्रश्न आता है । इस शरीर में राग-द्वेष में फंसी हुई आत्मा शुद्ध है, यह नहीं कहा जा सकता ।
तीन भूमिकाएं ____हमारी तीन भूमिकाएं हैं-शुभ की भूमिका, अशुभ की भूमिका और संवर की भूमिका । जहां शुभ और अशुभ दोनों नहीं हैं, पुण्य और पाप दोनों क्षीण हो जाते हैं, वहां न शुभ होता है, न अशुभ होता है । जब तक हमारा जीव अशुद्ध है तब तक वह शुभ और अशुभ-दोनों को पैदा करता रहेगा। व्यक्ति स्वयं अशुभ को पैदा कर रहा है । इसमें बाहर का कोई लेना-देना नहीं है | अशुभ को न ईश्वर पैदा कर कर रहा है, न शैतान पैदा कर रहा है, न कोई तीसरी शक्ति उसे पैदा कर रही है । स्वयं का अशुद्ध जीव ही उसे पैदा कर रहा है।
दुःख का स्रोत
दुःख का स्रोत है- आस्रव । हम यह स्वीकार करें- हमारे भीतर ज्ञान है, दर्शन और आनंद है पर उसके साथ ही अज्ञान है, अदर्शन है और आनंद
यह दुःख कहां से आ रहा है ?
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