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मान्य नहीं है, जीव शुद्ध रूप में मान्य नहीं है । जैन दर्शन में आत्मा और जीव - दोनों मान्य हैं । जीवनी शक्ति जीव है । जीव प्राण के द्वारा अपना जीवन चलाते हैं । वह जीवन तत्त्व है । वह शरीर के साथ जुड़ा हुआ है इसलिए साकार है । पर अपने शुद्ध एवं आंतरिक रूप में वह अनाकार है । संसार में जितने जीव हैं, उनकी आत्मा अनाकार नहीं है, साकार है। साकार का साकार के साथ ही संबंध स्थापित हो सकता है। अनाकार का साकार के साथ कभी संबंध स्थापित नहीं हो सकता । आत्मा साकार बना हुआ है इसीलिए शरीर के साथ हमारा संबंध चलता है । यदि हम आत्मा को सर्वथा अनाकार या अभौतिक मान लें तो यह संबंध स्थापित नहीं हो सकता ।
डेकार्टे का मंतव्य
डेकार्ट ने कहा- आत्मा का निवास पिनियल ग्लैंड में है । आत्मा वहां रहती है और वहीं से पूरे शरीर को प्रकाशित करती है। डोकार्टे के इस मंतव्यं पर कांट तथा अनेक दार्शनिकों ने आपत्ति की - साकार शरीर में अनाकार आत्मा कैसे रह सकती है ? डेकार्टे ने आत्मा को अभौतिक - निराकार मान लिया किन्तु उसके साथ अनेकान्त का सहारा नहीं लिया इसीलिए यह आपत्ति प्रस्तुत हुई । यदि अनेकान्त का सहारा लिया जाता तो यह उलझन पैदा नहीं होती ।
जैन दर्शन में नौ तत्व माने गए हैं। उनमें पहले दो तत्त्व हैं- जीव और अजीव । जहां ज्ञाता है वहां अज्ञाता का होना जरूरी है। अगर अज्ञाता नहीं है तो ज्ञाता क्या होगा ? जीव है तो अजीव का होना जरूरी है । प्रतिपक्ष निश्चित होगा । मूर्त्त है तो अमूर्त भी होगा। अपने शुद्ध अस्तित्व की दृष्टि से जीव अमूर्त है । जीवधारी होने के नाते वह मूर्त्त भी है ।
संत बनना होगा
जैन दर्शन के अनुसार जीव पूरे शरीर में रहता है। आत्मा का द्रव्यमान है, आत्मा में भार नहीं है । अमूर्त में भार नहीं होता । निष्कर्ष की भाषा
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जैन धर्म के साधना - सूत्र
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