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की प्रतिसंलीनता होती है, राग और द्वेष की तरंगें अपने आप शान्त हो जाती हैं । उस अवस्था में एक नई चेतना का जागरण होता है, वह है अतीन्द्रिय चेतना, निर्मल चेतना या वीतराग चेतना । इस वीतराग चेतना की उपलब्धि के द्वारा ही ज्ञाता को जाना जा सकता है ।
आश्चर्य है आस्तिक होना
आइंस्टीन के इस कथन, 'मैं संत होना चाहता हूं', का अर्थ है-मैं वीतरागता की साधना करने वाला होना चाहता हूं । जो संत नहीं होता, वह ज्ञेय को जानता है, ज्ञाता को नहीं जानता । आज ज्ञेय को जानते-जानते आदमी कहीं भी रुक नहीं पा रहा है | अपने आप में ठहरने के लिए वीतरागता की साधना करना जरूरी है ।
ध्यान का मुख्य उद्देश्य है-ज्ञाता को जानने वाली चेतना का विकास । जितने वैज्ञानिक उपकरण हैं, वे स्थूल को जानते हैं और एक सीमा तक सूक्ष्म को भी जानते हैं। किन्तु परम सूक्ष्म को जानने वाले उपकरण निर्मित नहीं हो पाए हैं । उस परम सूक्ष्म या अमूर्त तत्त्व को केवल वीतराग चेतना के द्वारा ही जाना जा सकता है । इसलिए अनेक महर्षियों ने वीतरागी चेतना की साधना की, उसके द्वारा आत्मा का साक्षात्कार किया । उन्होंने कहाज्ञाता है, आत्मा है । आत्मा का निरूपण करना बहुत कठिन है । इन्द्रियजगत् में जीने वाला आत्मा की बात करे, यह कैसे संभव हो सकता है ? इसीलिए नास्तिकता को बल मिला | मैं तो यह मानता हूं- नास्तिक होना आश्चर्य नहीं है, आश्चर्य है आस्तिक होना ।
आत्मा : साकार या अनाकार __जिन लोगों ने वीतरागी चेतना को स्वीकार किया, समझा, उन्होंने आत्मा को स्वीकार किया, उसे देखा, उसका साक्षात्कार किया । निश्चय नय की भाषा में कहें तो आत्मा है । व्यवहार नय की भाषा में कहें तो जीव है । आत्मा का मतलब है- शुद्ध आध्यात्मिक सत्ता और जीव का मतलब है-प्राण । अनेकान्त के अनुसार आत्मा और जीव-दोनों मान्य हैं । वेदान्त में आत्मा
वह ज्ञाता होना चाहता है
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