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आग्रह का निदर्शन
एक सूफी संत आतिथ्य में बहुत कुशल था । कोई भी अतिथि आता, उसकी वह पूरी सेवा करता । पहले उसे भोजन कराता, बाद में स्वयं करता । एक सांझ संत ने देखा- एक बूढ़ा आदमी एक लाटी के सहारे चला आ रहा है । संत को प्रसन्नता हुई। सोचा- आज आतिथ्य का अच्छा अवसर मिलेगा। बड़े सौभाग्य की बात है । संत सामने गया । उसे सहारा देकर अपने आवास तक लाया । उसके हाथ-पैर धोये, भोजन परोसा । वह वृद्ध आदमी भोजन के लिए बैठ गया, खाने लगा और खाता ही चला गया । संत ने कहा- 'अरे कैसे आदमी हो तुम? खुदा की इबादत भी नहीं की, परमात्मा का नाम नहीं लिया और सीधे खाने बैठ गए ।' वृद्ध ने कहा- 'मैं अग्नि के सिवाय किसी अन्य को नहीं मानता । मेरे लिए अग्नि की पूजा ही सब कुछ है ! इसलिए तुम यह आशा मत करो ।'
भोजन से जुड़ा विवेक
अपना-अपना एक अवधारणात्मक आग्रह हो जाता है । खाने से पहले परमात्मा का नाम लें या न लें, पर खाने में भी इतनी आकुलता और लोलुपता तो प्रकट न हो । खाने के पीछे आशय की शुद्धि होनी चाहिए । एक परमार्थ की दृष्टि होनी चाहिए कि मैं जो खा रहा हूं, वह केवल शरीर को संबल देने की दृष्टि से खा रहा हूं | यह दृष्टिकोण है अनासक्ति का । खाना केवल उपयोगिता मात्र है, इससे ज्यादा और कुछ नहीं । शरीर की आवश्यकता है, इसलिए खा रहा हूं । खाने के साथ दूसरा दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि मैं जो खा रहा हूं, उसका कहीं दुरुपयोग न हो । मैं अनावश्यक न खाऊं। क्योंकि मैं जो खाना खा रहा हूं, न जाने कितने लोगों का श्रम जुड़ा हुआ है । व्यक्ति यह चिन्तन करे कि अगर मैं अनावश्यक खाता हूं या अधिक खाता हूं तो कितने लोगों के श्रम की अवज्ञा करता हूं। खाना कहां से आया ? यह सीधा आकाश से तो नहीं उतरा । किसी ने भूमि को साफ किया, उसे उर्वर बनाया, हल से जोता, बीज बोया, सिंचाई की, रखवाली की, पकी फसल की कटाई की, काटने में कितने मजदूरों का श्रम लगा । फिर उसमें से अनाज
जैन धर्म के साधना सूत्र
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